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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
णमो लोए सव्व साहूणं अनुसरतां पदमेतत् करम्बिताचार नित्यनिरभिमुखा। एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ।। 16 ।।
पु.सि.उ. सिद्धों को, जिनवर वृषभों को तथा श्रमणों को बारम्बार प्रणाम करो और यदि दुःखों से छुटकारा पाने की इच्छा हो तो साधू दशा को स्वीकार करो।
एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पणो पणो समणे। पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ।।
201 प्रवचनसार ।।
लोक पापक्रियाओं में आसक्त होकर प्रवर्तन करता है, मुनि पापक्रियाओं का चिन्तवन भी नहीं करते।
लोक अनेक प्रकार से शरीर की संभाल और पोषण करता है, परन्तु मुनिराज अनेक प्रकार से शरीर को परीषह उत्पन्न करके उन्हें सहन करते
लोक को इन्द्रिय-विषय अत्यन्त मिष्ट लगते हैं जबकि मुनिराज विषयों को हलाहल विष समान जानते हैं।
लोक को अपने पास जन-समुदाय रुचिकर लगता है, जबकि मुनिराज दूसरों का संयोग होने पर खेद मानते है।
लोक को बस्ती सुहावनी लगती है, किन्तु मुनि को निर्जन स्थान.ही प्रिय लगता है।