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[ जैनधर्म-मीमांसा
चार है, वहां व्रत, व्रत नहीं है । जगत् का कल्याण करना उसका लक्ष्य नहीं होता, किन्तु 'हम कल्याण करनेवाले हैं' इस प्रकार का झूठा प्रदर्शन करके दुनिया को धोखा देने की भावना होती है। परन्तु ऐसा व्यक्ति जगत् में कल्याण की वृद्धि नहीं कर सकता । मिध्यात्वी भी व्रती नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वह विवेक द्दी नहीं है जिससे कल्याण की वृद्धि होती है । वह देखा देखी ज्यों त्यों बाह्य आचरण करता है । कल्याण के साथ इसका क्या सम्बन्ध है, यह बात वह नहीं समझता । इसलिये वह रूढ़ि का ही पालन कर सकता है, किन्तु व्रती नहीं बन सकता । रूढ़ि के विरूद्ध जाने से अगर कल्याण होता है तो वह कल्याण काही विरोध करने लगेगा | इस प्रकार न तो वह ठीक मार्ग पकड़ सकता है, न उससे उचित लाभ उठा सकता है ।
किसी व्रत को कर्तव्यदृष्टि से न करके स्वार्थ दृष्टि से करना निदान शल्य है । ऐसा मनुष्य भी व्रती नहीं है । क्योंकि ऐसा मनुष्य जगत् में कल्याणवृद्धि करना नहीं चाहता, जैसा कि प्रथम अध्याय में बताया गया है । व्रत को तो उसने स्वार्थसिद्धि का साधन बनाया है । जिस उद्देश्य से चारित्र की आवश्यकता बतायी गई है, उसकी इसको जरा भी पर्वाह नहीं है, इसलिये यह अनती है ।
इस प्रकार तीन शल्यों का विवेचन करके नियमों के दुरुपयोगको रोकने का सुन्दर प्रयत्न किया गया है । फिर भी कौनसा नियम किस अवस्था में कितना उपयोगी है, उसके अपवाद कब कैसे होते हैं, उनको किस अपेक्षा से कितने भागों में विभक्त करना चाहिये, कब किस पर कितना जोर डालना चाहिये, पुराने नियम