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[जैनधर्म-मीमांसा
किन्तु नियमोंके भीतर रहते हुए भी पाप करते हैं। तीसरी बात यह है कि नियम तो भय और लालच से भी पाले जाते हैं, परन्तु इस से आत्मशुद्धि नहीं होती और न इससे स्वपरकल्याण की वृद्धि होती है । भय और लालच के कारण दूर होने पर वह मनुष्य कल्याण का नाश करने लगता है । इसलिये ऐसे आदमी पर विश्वास नहीं रक्खा जा सकता | अगर भूल से विश्वास कर लिया जाता है तो ठीक मौके पर धोखा खाना पड़ता है । इस प्रकार वह गोमुखव्याघ्र की तरह व्याघ्र से भी अधिक भयंकर सिद्ध होता है । नियम का गुलाम यह नहीं देखता कि इस कार्य से स्वपर कल्याण होता है कि नहीं; वह तो मनमानी स्वार्थसिद्धि करने के लिये दूसरों की बड़ी से बड़ी हानि करते हुए भी यही देखेगा कि मैं नियम भंग के अपराध में तो नहीं पकड़ा जाता । बस, इतने से ही वह संतुष्ट हो जाता है । परन्तु इस प्रकार की आत्मवञ्चना कल्याण की वृद्धि नहीं कर सकती । इसलिये नियमों पर जोर न देकर कल्याणकारकता पर जोर दिया जाता है ।
फिर भी चारित्र के प्रतिपादन में नियमों का बड़ाभारी स्थान है | चारित्र के प्रतिपादन के लिये हमें उसका कोई न कोई रूप तो बतलाना ही पड़ता है; और वह रूप नियम ही है । हम जिस द्रव्यक्षेत्र कालभाव में हैं, उसके अनुसार चारित्र का रूप बनता हैं । योग्यतानुसार मनुष्य में जो श्रेणी-विभाग होता है, उसके अनुसार चारित्र में भी श्रेणी विभाग होता है । मद्दाव्रत, अणुव्रत तथा ग्यारह प्रतिमाएँ इसी श्रेणीविभाग का फल हैं । इस प्रकार चारित्र का विवेचन अनेक प्रकार के विधिविधानों का