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का पालन करना चारित्र है ।
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इस चारित्रधर्म का पालन करने के लिये अनेक नियमोपनियम बनाये जाते हैं । परन्तु उन नियमों को चारित्र न समझना चाहिये । वे सिर्फ चारित्र के उपाय हैं । उनको उपचार से चारित्र कह सकते हैं । परन्तु जब वे वास्तविक चारित्र को उत्पन्न करें तभी उन्हें उपचार से चारित्र कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं । एक नियम किसी परिस्थिति में चारित्र का कार्य या चारित्र का कारण कहा जा सकता है । वही नियम अवस्था के बदलने पर अचारित्र या असंयम कहा जा सकता है । प्रत्येक नियम और उसके कार्य के विषय में हमें इसी तरह अपेक्षा भेद से विचार करना चाहिये । उदाहरणार्थ, किसी को मार डालना पाप है; परन्तु न्याय की रक्षा के लिये निस्वार्थता समभाव से खूनी को मृत्युदंड देना पाप नहीं है, क्योंकि प्राणियों की सुखरक्षा के लिये ऐसा करना आवश्यक है ।
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[ जैनधर्म-मीमांसा
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. इस प्रकार जीवन में ऐसे सैंकड़ों प्रसंग आते हैं जब सामान्य नियमों का भंग करना धर्म के लिये ही आवश्यक मालूम होता है 1 जब ऐसे अवसर कुछ अधिक संख्या में आते हैं, तब हम उन्हें अपवाद नियम बनाते हैं । इस प्रकार उत्सर्ग और अपवाद विधियों का भेद खड़ा हो जाता है । परन्तु जीवन इतना जटिल है और उसमें अनेक बार ऐसे प्रसंग आते हैं कि प्रचलित अपवाद नियम भी कुछ काम नहीं दे सकते । उस समय नियमों की पर्वाह न करके हमें चारित्र की रक्षा करना पड़ती है । इसलिये कहना पड़ता है कि पूर्ण संयमी के लिये नियमों की कोई आवश्यकता नहीं है ।