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[ जैनधर्म मीमांसा दुःख से बच सकते हैं । मतलब यह है कि अपने परिणामों के ऊपर ही अधिकतर दुःख-सुख अवलम्बित है, इसलिये कल्याण मार्ग में परिणामों का बड़ा भारी महत्व है । अपने भावों पर असर डाले बिना कोई भी दुःख-सुख नहीं होता इसलिये कहना चाहिये कि दुःख-सुख का सीधा सम्बन्ध परिणामोंसे-भावोंसे--है।
दूसरे के लिये जब हम कुछ काम करते हैं, तब भी परिणामों का विचार किया जाता है । इसके चार कारण हैं
१-हमारी जैसी इच्छा होती है, हम वैसा ही प्रयत्न करते हैं। जैसा प्रयत्न किया जाता है, वैसा ही फल होता है-यह साधारण नियम है। कभी कभी प्रयत्न से विपरीत भी फल होता है, परन्तु यह कादाचित्क है । अधिक सुख के लिये हमें उसी नीति से काम लेना पड़ेगा जो अधिक स्थलों में फलप्रद हो।
२--मनुष्य अच्छे काम के लिये अच्छी भावना की ही जिम्मेदारी ले सकता है, न कि अच्छे फल की । डॉक्टर ईमानदारी से काम करने की ही जिम्मेदारी ले सकता है । वह रोगी को बचा ही लेगा, यह नहीं कहा जा सकता । अच्छी भावनापूर्वक प्रयत्न करने पर भी अगर कोई मर जाय, इस पर अगर डॉक्टर को खूनी कहा जाय तो कोई भी मनुष्य किसी को सहायता न देगा।
३.भावना के साथ सुख-दुःख का साक्षात्संबन्ध है। चोरी करते समय जो भय उद्वेग आदि पैदा होते हैं, वे चोरी की भावना पर ही निर्भर हैं । भूल से अगर हम किसी की चीज़ उठा लें तो हमें चोर की संक्लेशताका कष्ट न उठाना पड़ेगा । इस प्रकार आत्मा की मलिनता दुर्भावना पर निर्भर है । आत्मा के साथ जो कर्म बँधते