________________
सम्यक्चारित्र का रूप ]
[ ९
--प्रथम अध्याय में कल्याणमार्ग की मीमांसा की गई है और अधिकतम मनुष्यों के अधिकतम सुखवाली नीति का संशोधित रूप बतलाया गया है । वहाँ पर मुखकी प्राप्ति के लिये दो बातें आवश्यक बतलायीं गई हैं- (१) संसार में सुख की वृद्धि करना [काम] और (२) सुखी रहने की कला सीखना [ मोक्ष ] ! दुःख के जितने साधन दूर किये जा सकें उनको दूर करने का और सुख के जितने साधन जुटाये जा सकें उनको जुटाने का प्रयत्न करना तथा अवशिष्ट दुःख को समभाव से सहन करके अपने को सदा सुखी मानना, सुखका वास्तविक उपाय है ।
इस प्रयत्न का बहुभाग मानसिक भावना पर अवलम्बित है । दुःख के साधन दूर करने का और सुख के साधन जुटाने का कोई कितना भी प्रयत्न क्यों न करे, फिर भी कुछ त्रुटि रह जायगी जिसे संतोष से पूरा करना पड़ेगा । जितना कुछ मिलता है उसकी अपेक्षा न मिलने का क्षेत्र बहुत ज्यादा है, इसलिये संतोषादि से बहुत अधिक काम लेने की जरूरत है । इसलिये कहना चाहिये कि सुखका मार्ग आत्माकी भावना पर ही अधिक अवलम्बित है ।
ऊपर जो बातें बताई गई हैं उनमें दूसरी बात ( सुखी रहने की कला ) तो परिणामों पर ही निर्भर है और पहिली बात का भी साक्षात् सम्बन्ध परिणामों से है । क्योंकि दुःख क्या है ? एक तरह का परिणाम ही है । प्रतिकूल साधनों के रहने पर भी अगर हम बेचैनी को पैदा नहीं होने दें तो हमें दुःख न होगा । प्रतिकूल साधन बेचैनी पैदा करते हैं इसलिये उनको दूर करने का उपाय सोचा जाता है । अगर हम उन पर विजय प्राप्त कर सकें तो