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प्रस्तुति
कहीं-कहीं हमने गाथा के मूल शब्द के स्थान पर लगभग उसी के समकक्ष अन्य शब्द की संभावना कर उसे अनुवाद में कोष्ठक में वैकल्पिक रूप से दिया है । यथा आसासो.....मा भाहि (व्यभा १६८१ ) – इसमें मा भाहि के स्थान पर माभाइ रूप की संभावना की है। यह शब्द देशीनाममाला में अभयदान के अर्थ में गृहीत है । संघ आश्वास है, विश्वास है....इसलिए 'डरो मत' - इसकी अपेक्षा 'संघ अभयदाता है' यह अनुवाद अधिक संगत प्रतीत होता है (द्र संघ)। हो सकता है कभी यही (माभाइ) शब्द रहा हो और लिपि प्रतिलिपि काल में एक पद के स्थान पर दो पद और 'इ' के स्थान पर 'हि' अक्षर लिखे जाने पर 'मा भाहि' हुआ हो ।
• उत्सर्ग अपवाद सूत्र
भाष्य - चूर्णि टीका साहित्य में अपवादों की प्रलंब परिचर्चा है, जिसमें प्रयोजनवश छहकायवध तक को करणीय मान लिया गया है। किन्तु अध्यात्मवादी आचार्यों ने इसे किंचित् भी स्वीकृति नहीं दी (द्र सूत्र ) । आचार्य भिक्षु और श्रीमज्जयाचार्य ने चूर्णि आदि को उतना ही प्रमाण माना, जितना वे ग्यारह अंगों से मेल खाते हैं
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'टीका चूर्णि भाष्य निर्युक्ति नां, यांरा करै घणा बखाण । ए च्यारूंई जिन भाख्या नहीं, त्यांरी बुधिवंत करज्यो पिछाण ॥ '
- भिक्षुग्रंथरत्नाकर (खण्ड ३) रत्न : १४ निक्षेपनिर्णय (हस्तलिखित प्रति ) एकादश जे अंग थी, मिलता
सर्व मानवा जोग्य मुझ, संपूरण दस पूर्वधर, तास रचित आगम हुवै, दस चउदस पूरवधरा, ते पिण जिन नीं साख थी,
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वचन
पइन्ना प्रमुख
२७
सुजाण । पिछाण ॥
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चउदश
वारू न्याय
आगम
उदार ।
रचै विमल न्याय सुविचार ||
- प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, १५ / १३; १९ / १२; २० / ९
चतुर्दशपूर्वी और सम्पूर्णदशपूर्वी द्वारा रचित आगम प्रमाण हैं - जयाचार्य की इस स्थापना का आधार है नन्दी (सूत्र ६६), जिसमें बतलाया गया है कि 'द्वादशांग गणिपिटक चौदह पूर्वधरों और अभिन्न दसपूर्वधरों के लिए सम्यक् श्रुत है। इससे न्यून पूर्वधरों के लिए सम्यक् श्रुत की भजना (विकल्प) है।' जो द्वादशांगी के अविरुद्ध है, वह प्रमाण है। द्वादशांगी के विरुद्ध है, वह प्रमाण नहीं है । जयधवला में गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और सम्पूर्ण दशपूर्वधर के द्वारा रचित आगम का प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। (कषाय पाहुड, पृ. १५३)
भाष्यकारों ने व्यवहार (प्रायश्चित्तदान) के लिए नवपूर्वी का भी प्रामाण्य माना है। (व्यभा ३१८) ।
पुस्तक लेखन
वीरनिर्वाण ८२७ -८४० में आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में और नागार्जुनसूरि की अध्यक्षता में वलभी में आगम वाचना हुई । साधुसंघ एकत्र हुआ। उस समय आगमों को संकलित कर लिखा गया । वीरनिर्वाण ९८०-९९३ में देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने वलभी में पुनः आगमों को पुस्तकारूढ़ किया । आगमों के लिपिबद्ध होने के उपरांत भी एक विचारधारा ऐसी रही कि साधु पुस्तक नहीं लिख सकते । पुस्तक लिखने और रखने में अनेक दोष हैं (द्र पुस्तक) । साधु जितनी बार पुस्तकों को बांधते हैं, खोलते हैं और जितने अक्षर लिखते हैं, उन्हें दण्डस्वरूप
पूरवधार । विचार ॥
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