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आराधना कथाकोश
___इन सब भयंकर उपद्रवोंसे भी जब उसने मुनिराजको पर्वतसे अचल देखा तब उसका क्रोध और भी बहत बढ़ गया। वह अपने विद्याबलसे मुनिराजको वहाँसे उठा ले चला और भारतवर्ष में पूर्व दिशाकी ओर बहनेवाली सिंहवती नामकी एक बड़ी भारी नदी में, जिसमें कि पाँच बड़ीबड़ी नदियाँ और मिली थीं, डाल दिया। भाग्यसे उस प्रान्तके लोग भी बड़े पापी थे । सो उन्होंने मुनिको एक राक्षस समझकर और सर्वसाधारणमें यह प्रचार कर, कि यह हमें खानेके लिये आया है, पत्थरोंसे खूब मारा । मुनिराजने सब उपद्रव बड़ी शान्तिके साथ सहा । उन्होंने अपने पूर्ण आत्मबलके प्रभावसे हृदयको लेशमात्र भी अधीर नहीं बनने दिया । क्योंकि सच्चे साधु वे ही हैं
तृणं रत्नं वा रिपुरिव परममित्रमथवा,
स्तुतिर्वा निन्दा वा मरणमथवा जीवितमथ । सुख वा दुःखं वा पितृवनमहोत्सौधमथवा,
___ स्फुटं निर्ग्रन्थानां द्वयमपि समं शान्तमनसाम् ॥ जिनके पास रागद्वेषका बढ़ानेवाला परिग्रह नहीं है, जो निम्रन्थ हैं, और सदा शान्तचित्त रहते हैं, उन साधुओंके लिये तृण हो या रत्न, शत्रु हो या मित्र, उनकी कोई प्रशंसा करो या बुराई, वे जीवें अथवा मर जायँ, उन्हें सुख हो या दुःख और उनके रहनेको श्मशान हो या महल, पर उनकी दृष्टि सबपर समान रहेगी। वे किसीसे प्रेम या द्वेष न कर सबपर समभाव रक्खेंगे। यही कारण था कि संजयन्त मुनिने विद्याधरकृत सब कष्ट समभावसे सहकर अपने अलौकिक धैर्यका परिचय दिया। इस अपूर्व ध्यानके बलसे संजयन्त मुनिने चार घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और इसके बाद अघातिया कर्मोंका भी नाश कर वे मोक्ष चले गये। उनके निर्वाणकल्याणकी पूजन करनेको देव आये। वह धरणेन्द्र भी इनके साथ था, जो संजयन्त मुनिका छोटा भाई था और निदान करके धरणेन्द्र हुआ था । धरणेन्द्रको अपने भाईके शरीरकी दुर्दशा देखकर बड़ा क्रोध आया। उसने भाईको कष्ट पहँचानेका कारण वहाँके नगरवासियोंको समझकर उन सबको अपने नागपाशसे बाँध लिया और लगा उन्हें वह दुःख देने । नगरवासियोंने हाथ जोड़कर उससे कहा-प्रभो, हम तो इस अपराधसे सर्वथा निर्दोष हैं। आप हमें व्यर्थ ही कष्ट दे रहे हो । यह सब कर्म तो पापी विद्युइंष्ट्र विद्याधरका है। आप उसे ही पकड़िये न ? सुनते ही धरणेन्द्र विद्याधरको पकड़नेके लिये दौड़ा और उसके पास पहुंचकर
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