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१७ धनदत्त राजाकी कथा देवादिके द्वारा पूज्य और अनन्तज्ञान, दर्शनादि आत्मीयश्रीसे विभूषित जिनभगवान्को नमस्कार कर मैं धनदत्त राजाकी पवित्र कथा लिखता हूँ।
अन्ध्रदेशान्तर्गत कनकपुर नामक एक प्रसिद्ध और मनोहर शहर था। उसके राजा थे धनदत्त । वे सम्यग्दृष्टि थे, गुणवान् थे, और धर्मप्रेमी थे। राजमंत्रीका नाम श्रीवन्दक था। वह बौद्धधर्मानुयायी था। परन्तु तब भी राजा अपने मंत्रीकी सहायतासे राजकार्य अच्छा चलाते थे। उन्हें किसी प्रकारकी बाधा नहीं पहुँचती थी।
एक दिन राजा और मंत्री राजमहलके ऊपर बैठे हुए कुछ राज्य सम्बन्धी विचार कर रहे थे कि राजाको आकाशमार्गसे जाते हुए दो चारण ऋद्धिधारी मुनियोंके दर्शन हए । राजाने हर्षके साथ उठकर मुनिराजको बड़े विनयसे नमस्कार किया और अपने महल में उनका आह्वान किया। ठीक भी है-“साधुसंगः सतां प्रियः" अर्थात्-साधुओंकी संगति सज्जनोंको बहुत प्रीतिकर जान पड़ती है। ____ इसके बाद राजाके प्रार्थना करनेपर मुनिराजने उसे धर्मोपदेश दिया
और चलते समय वे श्रीवन्दक मंत्रीको अपने साथ लिवा ले गये । लेजाकर उन्होंने उसे समझाया और आत्महितकी इच्छासे उसके प्रार्थना करनेपर उसे श्रावकके व्रत दे दिये । श्रीवन्दक अपने स्थान लौट आया। इसके पहले श्रीवन्दक अपने बुद्धगुरुकी वन्दनाभक्ति करनेको प्रतिदिन उनके पास जाया करता था। सो जब उसने श्रावकव्रत ग्रहण कर लिये तबसे वह नहीं जाने लगा। यह देख बौद्धगुरुने उसे बुलाया, पर जब श्रीवन्दकने आकर भी उसे नमस्कार नहीं किया तब संघश्रीने उससे पूछा-क्यों आज तुमने । मुझे नमस्कार नहीं किया ? उत्तरमें मंत्रीने मुनिके आने, उपदेश करने और अपने व्रत ग्रहण करनेका सब हाल संघश्रीसे कह सुनाया। सुनकर संघश्री बड़े दुःखके साथ बोला-हाय ! तू ठगा गया, पापियोंने तुझे बड़ा धोखा दिया । क्या कभी यह संभव है कि निराश्रय आकाशमें भी कोई चल सकता है ? जान पड़ता है तुम्हारा राजा बड़ा कपटी और ऐन्द्रजालिक है । इसीलिये उसने तुम्हें ऐसा आश्चर्य दिखला कर अपने धर्ममें शामिल कर लिया । तुम तो भगवान् बुद्धके इतने विश्वासी थे, फिर भी तुम उस पापी राजाको बहकावटमें आ गये ? इस तरह उसे बहुत कुछ ऊँचा नीचा
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