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श्रीदत्त मुनिको कथा
२८३ जनोंको हितमार्गमें लगानेवाले हैं, लोक तथा अलोकके जाननेवाले हैं, देवों द्वारा पूजा किये जाते हैं और भव्य-जनोंके मिथ्यात्व, मोहरूपी गाढ़े अन्धकारको नाश करनेके लिए सूर्य हैं ।
६४. श्रीदत्त मुनिकी कथा केवलज्ञानरूपी सर्वोच्च लक्ष्मीके जो स्वामी हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर श्रीदत्त मुनिकी कथा लिखी जाती है, जिन्होंने देवों द्वारा दिये हुए कष्टको बड़ी शान्तिसे सहा । ___श्रीदत्त इलावर्द्धन पुरीके राजा जितशत्रुको रानी इला के पुत्र थे। अयोध्याके राजा अंशुमानकी राजकुमारो अंशुमतीसे इनका ब्याह हुआ था। अंशुमतीने एक तोतेको पाल रक्खा था। जब ये पति-पत्नी विनोदके लिए चौपड़ वगैरह खेलते तब तोता कौन कितनी बार जीता, इसके लिए अपने पैरके नखसे रेखा खींच दिया करता था। पर इसमें यह दुष्टता थी कि जब श्रीदत्त जीतता तब तो यह एक ही रेखा खींचता और जब अपनी मालकिनकी जीत होती तब दो रेखाएँ खींच दिया करता था। आश्चर्य है कि पक्षी भी ठगाई कर सकते हैं। श्रीदत्त तोतेकी इस चालाकोको कई बार तो सहन कर गया। पर आखिर उसे तोते पर बहुत गुस्सा आया । सो उसने तोतेकी गरदन पकड़ कर मरोड़ दी। तोता उसो दम मर गया। बड़े कष्टके साथ मरकर वह व्यन्तरदेव हुआ। ____ इधर साँझको एक दिन श्रीदत्त अपने महल पर बैठा हुआ प्रकृति देवीकी सुन्दरताको देख रहा था। इतनमें एक बादलका बड़ा भारो टुकड़ा उसकी आँखोंके सामनेसे गुजरा । वह थोड़ो दूर न गया होगा कि देखतेदेखते छिन्न-भिन्न हो गया। उसकी इस क्षण नश्वरताका श्रादत्तके चित्त पर बहत असर पड़ा। संसारकी सब वस्तुएँ उसे बिजलोकी तरह नाशवान् देख पड़ने लगीं । सपके समान भयंकर विषय भोगोंसे उसे डर लगने लगा। शरीर जिसे कि वह बहुत प्यार करता था सर्व अपवित्रताका स्थान जान पड़ने लगा। उसे ज्ञान हुआ कि ऐसे दुःखमय और देखते-देखते नष्ट होनेवाले संसारके साथ जो प्रेम करते हैं, माया-ममता बढ़ाते हैं, वे बड़े बे
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