Book Title: Aradhana Katha kosha
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 432
________________ औषधिदानकी कथा ४१७ वषभसेनाकी वह पवित्रता, वह दृढ़ता, वह शीलका प्रभाव, वह स्वभावसिद्ध प्रसन्नता आदि बातोंने उसे एक प्रकाशमान उज्ज्वल ज्योतिके रूपमें परिणत कर दिया था। उसके इस अलौकिक तेजके प्रकाशने स्वर्गके देवोंकी आँखों तकमें चकाचौंध पैदा कर दी। उन्हें भी इस तेजस्विता देवीको सिर झुकाना पड़ा। वे वहाँसे उसी समय आये और वृषभसेनाको एक अमूल्य सिंहासन पर अधिष्ठित कर उन्होंने उस मनुष्यरूपधारिणी पवित्रताकी मूर्तिमान देवीको बड़े भक्ति भावोंसे पूजा की, उसका जयजयकार मनाया, बहुत सत्य है, पवित्रशीलके प्रभावसे सब कुछ हो सकता है। यही शील आगको जल, समुद्रको स्थल, शत्रको मित्र, दुर्जनको सज्जन और विषको अमृतके रूपमें परिणत कर देता है। शीलका प्रभाव अचिन्त्य है। इसी शीलके प्रभावसे धन-सम्पत्ति, कीर्ति, पुण्य, ऐश्वर्य, स्वर्ग-सुख आदि जितनी संसारमें उत्तम वस्तुएँ हैं वे सब अनायास बिना परिश्रम किये प्राप्त हो जाती हैं। न यही किन्तु शीलवान् मनुष्य मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है। इसलिए बुद्धिवानोंको उचित है कि वे अपने चंचल मनरूपी बन्दरको वश कर उसे कहीं न जाने देकर पवित्र शीलवतकी, जिसे कि भगवान्ने सब पापोंका नाश करनेवाला बतलाया है, रक्षामें लगावें। वृषभसेनाके शीलका माहात्म्य जब उग्रसेनको जान पड़ा तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। अपनी बे-समझी पर वे बहुत पछताये। वृषभसेनाके पास जाकर उससे उन्होंने अपने इस अज्ञानकी क्षमा कराई और महल पर चलनेके लिए उससे प्रार्थना की। यद्यपि वृषभसेनाने पहले यह प्रतिज्ञा की थी कि इस कष्टसे छुटकारा पाते ही मैं योगिनी बनकर आत्महित करूंगी और इस पर वह दृढ़ भी वैसी ही थी; परन्तु इस समय जब कि खुद महाराज उसे लिवानेको आये तब उनका अपमान न हो; इसलिए उसने एक बार महल जाकर एक-दो दिन बाद फिर दीक्षा लेना निश्चय किया। वह बड़ी वैरागिन होकर महाराजके साथ महल आ रही थी। पर जिसके मन जैसी भावना होती हैं और वह यदि सच्चे हृदयसे उत्पन्न हुई होती है वह नियमसे पूरी होती ही है। वृषभसेनाके मनमें जो पवित्र भावना थी वह सच्चे संकल्पसे की गई थी। इसलिए उसे पूरी होना ही चाहिए था और वह हुई भी। रास्तेमें वृषभसेनाको एक महा तपस्वी और अवधिज्ञानी गुणधर नामके मुनिराजके पवित्र दर्शन हुए। वृषभसेनाने बड़ी भक्तिसे उन्हें हाथ जोड़ सिर नवाया। इसके बाद उसने उनसे पूछा-हे दयाके समुद्र योगिराज, क्या आप कृपाकर मुझे यह बतलावेंगे २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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