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आराधना कथाकोश गई। उस क्रोधको धिक्कार ! उस मूर्खताको धिक्कार ! जिसके वश हो लोग योग्य और अयोग्य कार्यका भी विचार नहीं कर पाते । अजान मनुष्य किसी को कोई कितना ही कष्ट क्यों न दे, दुःखोंकी कसौटी पर उसे कितना ही क्यों न चढ़ावें, उसकी निरपराधताको अपनी क्रोधाग्निमें क्यों न झोंक दें, पर यदि वह कष्ट सहनेवाला मनुष्य निरपराध है, निर्दोष है, उसका हृदय पवित्रतासे सना है, रोम-रोममें उसके पवित्रताका वास है तो निःसन्देह उसका कोई बाल वांका नहीं कर सकता। ऐसे मनुष्योंको कितना ही कष्ट हो, उससे उनका हृदय रत्ती भर भी विचलित न होगा। बल्कि जितना-जितना वह इस परीक्षाकी कसौटी पर चढ़ता जायगा उतना-उतना हो अधिक उसका हृदय बलवान् और निभीक बनता जायगा। उग्रसेन महाराज भले ही इस बातको न समझें कि वृषभसेना निर्दोष है, उसका कोई अपराध नहीं, पर पाठकोंको अपने हृदयमें इस बातका अवश्य विश्वास है, न केवल विश्वास ही है, किन्तु बात भी वास्तवमें यही सत्य है कि वृषभसेना निरपराध है । वह सती है, निष्कलंक है। जिस कारण उग्रसेन महाराज उस पर नाराज हुए हैं, वह कारण निर्धान्त नहीं है। वे यदि जरा गम खाकर कुछ शान्तिसे विचार करते तो उनकी समझमें भी वृषभसेनाकी निर्दोषता बहुत जल्दी आ जाती । पर क्रोधने उन्हें आपेमें न रहने दिया। और इसीलिए उन्होंने एकदम क्रोधसे अन्धे हो एक निर्दोष व्यक्तिको कालके मुंहमें फेंक दिया। जो हो, वृषभसेनाकी पवित्र जीवनकी उग्रसेनने तो कुछ कीमत न समझी, उसके साथ महान् अन्याय किया, पर वृषभसेनाको अपने सत्य पर पूर्ण विश्वास था। वह जानती थी कि मैं सर्वथा निर्दोष हूँ। फिर मुझे कोई ऐसी बात नहीं देख पड़ती कि जिसके लिए मैं दुःख कर अपने आत्माको निर्बल बनाऊँ। बल्कि मुझे इस बातकी प्रसन्नता होनी चाहिए कि सत्यके लिए मेरा जीवन गया। उसने ऐसे ही और बहतसे विचारोंसे अपने आत्माको खूब बलवान् और सहनशील बना लिया। ऊपर यह लिखा जा चुका है कि सत्यता और पवित्रताके सामने किसीकी नहीं चलती। बल्कि सबको उनके लिए अपना मस्तक झुकाना पड़ता है। वृषभसेना अपनी पवित्रता पर विश्वास रखकर भगवान्के चरणोंका ध्यान करने लगी। अपने मनको उसने परमात्म-प्रेममें लीन कर लिया। उसने साथ ही प्रतिज्ञा की कि यदि इस परीक्षामें मैं पास होकर नया जीवन लाभ कर सकू तो अब मैं संसारकी विषयवासनामें न फंसकर अपने जीवनको तपके पवित्र प्रवाहमें बहा दूंगी, जो तप जन्म और मरणका हो नाश करनेवाला है। उस समय
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