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आराधना कथाकोश हो । पर इसका शोध लगाना चाहिए कि किसने तो ये शालाएँ बनवाई और क्यों बनवाई ? आशा है पता लगानेसे सब रहस्य ज्ञात हो जायगा। रूपवतीने तब कुछ जासूसोंको उन शालाओंकी सच्ची हकीकत जाननेको भेजा। उनके द्वारा रूपवतीको मालूम हुआ कि वृषभसेनाके ब्याह समय उग्रसेनने सब कैदियोको छोड़नेकी प्रतिज्ञा की थी। उस प्रतिज्ञाके अनुसार पृथिवीचन्द्रको उन्होंने न छोड़ा। यह बात वृषभसेनाको जान पड़े, उसका ध्यान इस ओर आकर्षित हो इसलिये ये दान-शालाएँ उसके नामसे पृथिवीचन्द्रकी रानी नारायणदताने बनवाई हैं। रूपवतीने यह सब हाल वृषभसेनासे कहा । वृषभसेनाने तब उग्रसेनसे प्रार्थना कर उसी समय पृथिवो. चन्द्रको छुड़वा दिया । पृथिवीचन्द्र वृषभसेनाके इस उपकारसे बड़ा कृतज्ञ हुआ । उसने इस कृतज्ञताके वश हो उग्रसेन और वृषभसेनाका एक बहुत ही बढ़िया चित्र तैयार करवाया । उस चित्रमें इन दोनों राजारानीके पांवोंमें सिर झुकाया हुआ अपना चित्र भी पृथिवीचन्द्रने खिंचवाया। वह चित्र फिर उनकी भेंट कर उसने वृषभसेनासे कहा-माँ, तुम्हारी कृपासे मेरा जन्म सफल हुआ । आपको इस दयाका मैं जन्म-जन्ममें ऋणी रहँगा। आपने इस समय मेरा जो उपकार किया उसका बदला तो मैं क्या चुका सकूँगा पर उसकी तारीफमें कुछ कहने तकके लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं । पृथिवीचन्द्रकी यह नम्रता यह विनयशीलता देखकर उग्रसेन उस पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसका तब बड़ा आदर-सत्कार किया।
मेपिंगल उग्रसेनका शत्रु है, इसका जिकर ऊपर आया है। जो हो, उग्रसेनसे वह भले ही बिलकुल न डरता हो, पर पृथिवीचन्द्रसे बहुत डरता है । उसका नाम सुनते ही वह काँप उठता है। उग्रसेनको यह बात मालूम थी। इसलिए अबकी बार उन्होंने पथिवीचन्द्रको उस पर चढ़ाई करनेकी आज्ञा की। उनकी आज्ञा सिर पर चढ़ा पथिवीचन्द्र अपनी राजधानीमें गया । और तुरत उसने अपनी सेनाको मेघपिंगल पर चढ़ाई करनेकी आज्ञा की। सेनाके प्रयाणका बाजा बज़नेवाला ही था कि कावेरी नगरसे खबर आ गई-"अब चढ़ाईकी कोई जरूरत नहीं। मेघपिंगल स्वयं महाराज उग्रसेनके दरबारमें उपस्थित हो गया है।" बात यह थी कि मेघपिंगल पृथिवीचन्द्रके साथ लड़ाई में पहले कई बार हार चुका था। इसलिए वह उससे बहुत डरता था । यही कारण था कि उसने पृथिवीचन्द्रसे लड़ना उचित न समझा । तब अगत्या उसे उग्रसेनकी शरण आ जाना पड़ा। अब वह उग्रसेनका सामन्त राजा बन गया। सच है, पुण्यके उदयसे शत्रु भी मित्र हो जाते हैं।
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