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करकण्डु राजाकी कथा
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इधर करकण्डु राज्यशासन करने लगा। प्रजाको उमके शासनकी जैसी आशा थी, करकण्डुने उससे कहीं बढ़कर धर्मज्ञता, नीति और प्रजा प्रेम बतलाया। प्रजाको सुखी बनाने में उसने कोई बात उठा न रक्खी। इस प्रकार वह अपने पुण्यका फल भोगने लगा। एक दिन समय देख मंत्रियोंने करकण्डुसे निवेदन किया-महाराज, चेरम, पाण्डय और चोल आदि राजे चिर समयसे अपने आधीन हैं। पर जान पड़ता है उन्हें इस समय कुछ अभिमानने आ घेरा है । वे मानपर्वतका आश्रय पा अब स्वतंत्रसे हो रहे हैं। राज-कर वगैरह भो अब वे नहीं देते। इसलिए उन पर चढ़ाई करना बहुत आवश्यक है। इस समय ढोल कर देनेसे सम्भव है थोडे ही दिनों में शत्रओंका जोर अधिक बढ़ जाये। इसलिए इसके लिए प्रयत्न कीजिए कि वे ज्यादा सिर न चढ़ा पावें, उसके पहले हो ठोक ठिकाने आ जाँय । मंत्रियों की सलाह सुन और उस पर विचार कर पहले करकण्डने उन लोगों के पास अपना दूत भेजा। दूत अपमानके साथ लौट आया । करकण्डुने जब सोधी तरह सफलता प्राप्त न होती देखी तब उसे युद्धके लिए तैयार होना पड़ा। वह सेना लिए युद्धभूमिमें जा डटा। शत्रु लोग भी चुपचाप न बैठकर उसके सामने हुए। दोनों ओरकी सेनाकी मुठभेड़ हो गई । घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओरके हजारों वीर काम आये । अन्तमें करकण्डुकी सेनाके युद्धभूमिसे पाँव उखड़े । यह देख करकण्डु स्वयं युद्धभूमिमें उतरा। बड़ी वीरतासे वह शत्रुओंके साथ लड़ा । इस नई उमरमें उसकी इस प्रकार वीरता देखकर शत्रओंको दाँतों तले उँगली दबाना पड़ी। विजयश्रीने करकण्डुको ही वरा। जब शत्रुराजे आ-आकर इसके पाँव पड़ने लगे और इसकी नजर उनके मुकुटों पर पड़ी तो देखकर यह एक साथ हतप्रभ हो गया और बहुत-बहुत पश्चात्ताप करने लगा किहाय ! मुझ पापीने यह अनर्थ क्यों किया? न जाने इस पापसे मेरी क्या, गति होगी ? बात यह थी कि उन राजोंके मुकुटोंमें जिन भगवान्की प्रतिमाएँ खुदी हुई थीं। और वे सब राजे जैनी थे। अपने धर्मबन्धुओंको जो उसने कष्ट दिया और भगवानका अविनय किया उसका उसे बेहद दुःख हुआ । उसने उन लोगोंको बड़े आदरभावसे उठाकर पूछा-क्या सचमुच आप जैनधर्मी हैं ? उनकी ओरसे सन्तोषजनक उत्तर पाकर उसने बड़े कोमल शब्दोंमें उनसे कहा-महानुभावो, मैंने क्रोधसे अन्धे होकर जो आपको यह व्यर्थ कष्ट दिया, आप पर उपद्रव किया, इसका मुझे अत्यन्त दुःख है। मुझे इस अपराधके लिए आप लोग क्षमा करें। इस प्रकार उनसे क्षमा कराकर उनको साथ लिये वह अपने देशको रवाना हुआ। रास्तेमें
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