Book Title: Aradhana Katha kosha
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 442
________________ करकण्डु राजाको कथा ४२७ वसुमती उसकी स्त्री थी। धर्मसे उसे बड़ा प्रेम था। इन सेठ-सेठानीके यहाँ धनदत्त नामका एक ग्वाल नौकर था। वह एक दिन गोएँ चरानेको जगलमें गया हुआ था। एक तालाबमें इसने कोई हजार पंखरियों वाला एक बहुत सुन्दर कमल देखा। उस पर यह मुग्ध हो गया । तब तालाब में कूद कर इसने उस कमलको तोड़ लिया। उस समय नागकुमारीने इससे कहा-धनदत्त, तूने मेरा कमल तोड़ा तो है, पर इतना तू ध्यानमें रखना कि यह उस महापुरुषको भेंट किया जाय, जो संसारमें सबसे श्रेष्ठ हो । नागकुमारीका कहा मानकर धनदत्त कमल लिये अपने सेठके पास गया. और उनसे सब हाल इसने कहा । वसुमित्रने तब राजाके पास जाकर उनसे यह सब हाल कहा । सबसे श्रेष्ठ कौन है और यह कमल किसकी भेंट चढ़ाया जाय, यह किसीकी समझ में न आया। तब सब विचार कर चले कि इसका हाल मुनिराजसे कहें। संसारमें सबसे श्रेष्ठ कौन है, इस बातका पता वे अपनेको देंगे। यह निश्चय कर राजा, सेठ, ग्वाल तथा और भी बहुतसे लोक सहस्रकूट नामके जिन मन्दिर में गये । वहाँ सुगुप्त मुनिराज ठहरे हुए थे। उनसे राजाने पूछा-हे करुगाके समुद्र, हे पवित्र धर्मके रहस्यको समझनेवाले, कृपाकर बतलाइए कि संसार में सबसे श्रेष्ठ कौन है, जिन्हें यह पवित्र कमल भेंट किया जाय। उत्तर में मुनिराजने कहाराजन्, सारे संसारके स्वामी, राग-द्वेषादि दोषोंसे रहित जिन भगवान् सर्वोत्कृष्ट हैं, क्योंकि संसार उन्हीं की पूजा करता है। सुनकर सबको बड़ा सन्तोष हुआ जिसे वे चाहते थे वह अनायास मिल गया। उसी समय वे सब भगवानके सामने आये। धनदत्त ग्वालने तब भगवानको नमस्कार कर कहा-हे संसारमें सबसे श्रेष्ठ गिने जाने वाले, आपको यह कमल मैं आपकी भेंट करता हूँ। इसे आप स्वीकार कर मेरी आशाको पूरी करें। यह कहकर वह ग्वाल उस कमलको भगवान्के पाँवों पर चढ़ाकर चला गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पवित्र कर्म मुर्ख लोगोंको भी सुख देनेवाला होता है। इस कथासे सम्बन्ध रखनेवालो एक दूसरी कथा यहाँ लिखी जाती है । उसे सुनिए___ श्रावस्तीके रहनेवाले सागरदत्त सेठको स्त्री नागदत्ता बड़ो पापिनो थी। उसका चाल-चलन अच्छा न था। एक सोमशर्मा ब्राह्मणके साथ उसका अनुचित बरताव था । सच है, कोई-कोई स्त्रियाँ तो बड़ो दुष्ट और कुल-कलंकिनी हुआ करती हैं। उन्हें अपने कुलकी मान-मर्यादाकी कुछ लाज-शरम नहीं रहती। अपने उज्ज्वल कुलरूपो मन्दिरको मलिन करनेके लिए वे काले धुएँके समान होती हैं। बेचारा सेठ सरल था और धर्मात्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472