________________
करकण्डु राजाको कथा
४३५ कर्ताधर्ता हो। मुझे विश्वास है कि तुम इसे अपना ही प्यारा बच्चा समझोगे। उसने फिर पूत्रके प्रकाशमान चेहरे पर प्रेमभरी दृष्टि डालकर पुत्र वियोगसे भर आये हृदयसे कहा-मेरे लाल, तुम पुण्यवान् होकर भी उस अभागिनी माँके पुत्र हुए हो, जो जन्मते ही तुम्हें छोड़कर बिछुड़ना चाहती है। लाल, मैं तो अभागिनी थी ही, पर तुम भी ऐसे अभागे हुए जो अपनी माँके प्रेममय हृदयका कुछ भी पता न पा सके और न पाओगे ही। मुझे इस बातका बड़ा खेद रहेगा कि जिस पूत्रने अपनी प्रेम-प्रतिमा माँके पवित्र हृदय द्वारा प्रेमका पाठ न सीखा वह दूसरों के साथ किस तरह प्रेम करेगा ? कैसे दूसरोंके साथ प्रेमका बरताव कर उनका प्रेमपात्र बनेगा। जो हा, तब भी मुझे इस बातकी खुशी है कि तुम एक दूसरी माँके पास जाते हो, और वह भी आखिर है तो माँ ही। जाओ लाल जाओ, सुखसे रहना, परमात्मा तुम्हारा मंगल करे। इस प्रकार प्रेममय पवित्र आशिष देकर पदमावती कड़ा हृदय कर चल दी। बालदेवने उस सुन्दर और तेजपूज बच्चेको अपने घर ले आकर अपनी प्रिया कनकमालाको गोदमें रख दिया और कहा-प्रिये, भाग्यसे मिले इस निधिको लो। कनकमाला उस बाल-चन्द्रमासे अपनी गोदको भरी देखकर फूली न समाई । वह उसे जितना ही देखने लगी उसका प्रेम क्षणक्षणमें अनन्त गुणा बढ़ता ही गया। कनकमालाका जितना प्रेम होना संभव न था, उतना इस नये बालक पर उसका प्रेम हो गया, सचमुच यह आश्चर्य है । अथवा नई वस्तु स्वभाव हीसे प्रिय होती है और फिर यदि वह अपनी हो जाय तब तो उस पर होनेवाले प्रेमके सम्बन्धमें कहना ही क्या । और वह प्रेम, कि जिसकी प्राप्तिके लिए आत्मा सदा तड़फा ही करता है और वह पुत्र जैसी परम प्रिय वस्तु ! तब पढ़नेवाले कनकमालाके प्रेममय हृदयका एक बार अवगाहन करके देखें कि एक नई माँ जिस बच्चे पर इतना प्रेम, करती है तब जिसने उसे जन्म दिया उसके प्रेमका क्या कुछ अन्त हैसीमा है ! नहीं। मांका अपने बच्चे पर जो प्रेम होता है उसकी तुलना किसी दृष्टांत या उदाहरण द्वारा नहीं की जा सकती और जो करते हैं वे माँके अनन्त प्रेमको कम करने का यत्न करते हैं। कनकपाला उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उसने उसका नाम करकण्डु रक्खा। इसलिए कि उस बच्चे के हाथमें उसे खुजलो देख पड़ी थी। कनकमालाने उसका लालनपालन करने में अपने खास बच्चेसे कोई कमो न की। सच है, पुण्यके उदयसे कष्ट समयमें भी जोवोंको सुख सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है । इसलिए भव्यजनोंको जिन पूजा, पात्र-दान, व्रत, उपवास, शील, संयम आदि पुण्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org