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औषधिदानको कथा
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एक दिन दरबार लगा हुआ था । उग्रसेन सिंहासन पर अधिष्ठित थे । उस समय उन्होंने एक प्रतिज्ञा की - आज सामन्त-राजों द्वारा जो भेंट आयगी, वह आधी मेघपिङ्गलको और आधी श्रीमती वृषभमेनाकी भेंट होगी । इसलिए कि उग्रसेन महाराजकी अबसे मेघपिङ्गल पर पूरी कृपा हो गई थी । आज और बहुत-सी धन-दौलत के सिवा दो बहुमूल्य सुन्दर कम्बल उग्रसेनकी भेंट में आये । उग्रसेनने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार आधा हिस्सा मेघपिङ्गलके यहाँ और आधा हिस्सा वृषभसेनाके यहाँ पहुँचा दिया । धन-दौलत, वस्त्राभूषण, आयु आदि ये सब नाश होनेवाली वस्तुएँ हैं, तब इनका प्राप्त करना सफल तभी हो सकता है जब कि ये परोपकार में लगाई जाँय, इनके द्वारा दूसरों का भला हो ।
एक दिन मेघपिङ्गलकी रानी इस कम्बलको ओड़े किसी आवश्यक कार्यके लिए वृषभसेना के महल आई । पाठकों को याद होगा कि ऐसा ही एक कम्बल वृषभसेना के पास भी है । आज वस्त्रों के उतारने और पहरने में भाग्य से मेघपिङ्गकी रानीका कम्बल वृषभसेना के कम्बलसे बदल गया । उसे इसका कुछ खयाल न रहा और वह वृषभसेनाका कम्बल ओढ़े ही अपने महल आ गई । कुछ दिनों बाद मेघपिंगलको राज दरबार में जानेका काम पड़ा । वह वृषभसेनाके इसी कम्बलको ओढ़े चला गया। कम्बलको ओढ़े मेघगलको देखते ही उग्रसेनके क्रोधका कुछ ठिकाना न रहा । उन्होंने वृषभसेनाके कम्बलको पहचान लिया । उनकी आँखों से आग की-सी 'चिनगारियाँ निकलने लगीं। उन्हें काटो तो खून नहीं। महारानी वृषभसेनाका कम्बल इसके पास क्यों और कैसे गया ? इसका कोई गुप्त कारण जरूर होना ही चाहिए। बस, यह विचार उनके मनमें आते ही उनकी अजब हालत हो गई । उग्रसेनका अपने पर अकारण क्रोध देखकर afrost समझ में इसका कुछ भी कारण न आया। पर ऐसी दशा में उसने अपना वहाँ रहना उचित न समझा । वह उसी समय वहाँसे भागा और एक अच्छे तेज घोड़े पर सवार हो बहुत दूर निकल गया । जैसे दुर्जनोंसे डरकर सत्पुरुष दूर जा निकलते हैं । उसे भागा देख उग्रसेनका सन्देह और बढ़ा । उन्होंने तब एक ओर तो मेघपिंगलको पकड़ लाने के लिए अपने सवारों को दौड़ाया और दूसरी ओर क्रोधाग्निसे जलते हुए आप वृषभसेनाके महल पहुँचे । वृषभसेनासे कुछ न कह सुनकर कि तूने अमुक अपराध किया है, एक साथ उसे समुद्र में फिकवानेका उन्होंने हुक्म दे दिया । बेचारी निर्दोष वृषभसेना राजाज्ञाके अनुसार समुद्रमें डाल दी
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