Book Title: Aradhana Katha kosha
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 427
________________ ४१२ आराधना कथाकोश अपने आदमियोंको जल ले आनेके लिये सेठके यहाँ भेजा । अपनी लड़कीका स्नान - जल लेनेको राजाके आदमियोंको आया देख सेठानी धनश्रीने अपने स्वामी से कहा- क्योंजी, अपनी वृषभसेनाका स्नान-जल राजाके सिर पर छिड़का जाय यह तो उचित नहीं जान पड़ता । सेठने कहातुम्हारा यह कहना ठीक है, परन्तु जिसके लिये दूसरा कोई उपाय नहीं तब क्या किया जाय। इसमें अपने बसकी क्या बात है ? हम तो न जानबूझकर ऐसा करते हैं और न सच्चा हाल किसीसे छुपाते ही हैं, तब इसमें अपना तो कोई अपराध नहीं हो सकता । यदि राजा साहबने पूछा तो • हम सब हाल उनसे यथार्थ कह देंगे। सच है, अच्छे पुरुष प्राण जाने पर भी झूठ नहीं बोलते। दोनोंने विचार कर रूपवतीको जल देकर उग्रसेन के महल पर भेजा । रूपवतीने उस जलको राजाके सिर पर छिड़क कर उन्हें आराम कर दिया । उग्रसेन रोगमुक्त हो गये । उन्हें बहुत खुशी हुई । रूपवती से उन्होंने उस जलका हाल पूछा । रूपवतीने कोई बात न छुपाकर जो बात सच्ची थी वह राजासे कह दी । सुनकर राजाने धनपति सेठको बुलाया और उसका बड़ा आदर-सत्कार किया। वृषभसेनाका हाल सुनकर ही उग्रसेनकी इच्छा उसके साथ ब्याह करनेकी हो गई थी और इसीलिये उन्होंने मौका पाकर धनपतिसे अपनी इच्छा कह सुनाई । धनपतिने उसके उत्तर में कहा- राजराजेश्वर, मुझे आपकी आज्ञा मान लेनेमें कोई रुकावट नहीं है । पर इसके साथ आपको स्वर्ग-मोक्षकी देनेवाली और जिसे इन्द्र, स्वर्गवासी देव, चक्रवर्ती, विद्याधर, राजे-महाराजे आदि महापुरुष बड़ी भक्ति के साथ करते हैं ऐसी अष्टाह्निक पूजा करनी होगी और भगवान्का खूब उत्सवके साथ अभिषेक करना होगा। सिवा इसके आपके यहाँ जो पशु-पक्षी पींजरोंमें बन्द हैं, उन्हें तथा कैदियों को छोड़ना होगा । ये सब बातें आप स्वीकार करें तो मैं वृषभसेनाका ब्याह आपके साथ कर सकता हूँ । उग्रसेनने धनपतिकी सब बातें स्वीकार कीं । और उसी समय उन्हें कार्यमें भी परिणत कर दिया । वृषभसेनाका ब्याह हो गया । सब रानियों में पट्टरानोका सौभाग्य उसे ही मिला । राजाने अब अपना राजकीय कामोंसे बहुत कुछ सम्बन्ध कम कर दिया । उनका प्रायः समय वृषभसेनाके साथ सुखोपभोगमें जाने लगा । वृषभसेना पुण्योदय से राजाकी खास प्रेम पात्र हुई । स्वर्ग सरीखे सुखोंको वह भोगने लगी । यह सब कुछ होने पर भी वह अपने धर्म कर्मको थोड़ा भी न भूल गई थी । वह जिन भगवान्‌की सदा जलादि आठ द्रव्योंसे पूजा करती, उनका अभिषेक करती, साधुओंको चारों प्रकारका दान देती, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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