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आराधना कथाकोश
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वचनों से कुछ और बोलते हैं तथा शरीर जिनका मायासे सदा लिपटा रहता है, उन दुष्टोंकी दुष्टताका पता किसीको नहीं लग पाता । कावोकी सत्सम्मति सुनकर नन्दने कहा - अच्छा ब्राह्मणों को आप बुलवाइए, मैं उन्हें गौएं दान करूंगा। मंत्री जैसा चाहता था, वही हो गया । वह झटपट जाकर चाणक्यको ले आया और उसे सबसे आगे रखे आसन पर बैठा दिया । लोभी चाणक्यने तब अपने आस-पास रखे हुए बहुत से आसनोंको घर ले जानेकी इच्छासे इकट्ठा कर अपने पास रख लिया । उसे इस प्रकार लोभी देख कावीने कपटसे कहा- पुरोहित महाराज ! राजा साहब कहते हैं और बहुतसे ब्राह्मण विद्वान् आए हैं, आप उनके लिये आसन दीजिये | चाणक्यने तब एक आसन निकाल कर दे दिया । इसीतरह धीरे-धीरे मंत्रीने उससे सब आसन रखवाकर अन्त में कहा -महाराज, क्षमा कीजिए ! मेरा कोई अपराध नहीं है । मैं तो पराया नौकर हूँ | इसलिये जैसा मालिक कहते हैं उनका हुक्म बजाता हूँ । पर जान पड़ता है कि राजा बड़ा अविचारी है जो आप सरीखे महा ब्राह्मणका अपमान करना चाहता है । महाराज, राजाका कहना है कि आप जिस अग्रासन पर बैठे हैं उसे छोड़कर चले जाइये । यह आसन दूसरे विद्वान् के लिये पहले हीसे दिया जा चुका है । यह कहकर ही कावीने गर्दन पकड़ चाणक्यको निकाल बाहर कर दिया । चाणक्य एक तो वैसे ही महाक्रोधी और अब उसका ऐसा अपमान किया गया और वह भी भरी राजसभा में ! तब तो अब चाणक्यके क्रोधका पूछना ही क्या ? वह नन्दवंशको जड़मूलसे उखाड़ फेंकनेका दृढ़ संकल्प कर जाता-जाता बोला कि जिसे नन्दका राज्य चाहना हो, वह मेरे पीछे-पीछे चला आवे । यह कहकर वह चलता बना | चाणक्यकी इस प्रतिज्ञाके साथ हो कोई एक मनुष्य उसके पीछे हो गया । चाणक्य उसे लेकर उन आस-पास के राजोंसे मिल गया, और फिर कोई मौका देख एक घातक मनुष्यको साथ ले वह पटना आया और नन्द को मरवा कर आप उस राज्यका मालिक बन बैठा । सच है, मंत्रीके क्रोधसे कितने राजों का नाम इस पृथिवी परसे न उठ गया होगा ।
इसके बाद चाणक्यने बहुत दिनोंतक राज्य किया । एक दिन उसे श्रीमहीधर मुनि द्वारा जैनधर्मका उपदेश सुननेका मौका मिला। उस उपदेशका उसके चित्त पर खूब असर पड़ा । वह उसी समय सब राज-काज छोड़कर मुनि बन गया । चाणक्य बुद्धिमान् और बड़ा तेजस्वी था । इसलिए थोड़े ही दिनों बाद उसे आचार्य पद मिल गया । वहाँसे कोई पांचसी शिष्यों को साथ लिये उसने बिहार किया । रास्ते में पड़नेवाले देशों,
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