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विनयी पुरुषकी कथा
८६. विनयी पुरुषकी कथा
इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा पूजे जानेवाले जिन भगवान्को नमस्कार कर विनयधर्मके पालनेवाले मनुष्यकी पवित्र कथा लिखी जाती है ।
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वत्सदेश में सुप्रसिद्ध कौशाम्बीके राजा धनसेन वैष्णव धर्म के माननेवाले थे । उनकी रानी धनश्री, जो बहुत सुन्दरी और विदुषी थी, जिनधर्म पालती थी । उसने श्रावकों के व्रत ले रक्खे थे । यहाँ सुप्रतिष्ठ नामका एक वैष्णव साधु रहता था । राजा इसका बड़ा आदर-सत्कार करते थे और यही कारण था कि राजा इसे स्वयं ऊँचे आसन बैठाकर भोजन कराते थे। इसके पास एक जलस्तंभिनी नामकी विद्या थी । उससे यह बीच यमुना में खड़ा रहकर ईश्वराराधना किया करता था, पर डूबता न था । इसके ऐसे प्रभाव को देखकर मूढ़ लोग बड़े चकित होते थे । सो ठीक ही है मूर्खोको ऐसी मूर्खताकी क्रियाएँ पसन्द हुआ ही करती हैं ।
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विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें बसे हुए रथनूपुरके राजा विद्युत्प्रभ तो जैनी थे, श्रावकों के व्रतोंके पालनेवाले थे और उनकी रानो विद्युद्वेगा वैष्णव धर्मकी माननेवाली थी । सो एक दिन ये राजा-रानी प्रकृति की सुन्दरता देखते और अपने मनको बहलाते कौशाम्बीकी ओर आ गये । नदी - किनारे पहुँच कर इन्होंने देखा कि एक साधु बीच यमुनामें खड़ा रहकर तपस्या कर रहा है । विद्युत्प्रभने जान लिया कि यह मिथ्यादृष्टि है । पर उनकी रानी विद्युद्वेगाने उस साधुकी बहुत प्रशंसा की । तब विद्युत्प्रभने रानीसे कहा- अच्छी बात है, प्रिये, आओ तो मैं तुम्हें जरा इसकी मूर्खता बतलाता हूँ। इसके बाद ये दोनों चाण्डालका वेष बना ऊपर किनारेकी ओर गये और मरे ढोरोंका चमड़ा नदी में धोने लगे । अपने इस निन्द्यकर्म द्वारा इन्होंने जलको अपवित्र कर दिया । उस साधुको यह बहुत बुरा लगा । सो वह इन्हें कुछ कह सुनकर ऊपरकी ओर चला गया । वहाँ उसने फिर नहाया धोया । सच है मूर्खताके वश लोग कौन काम नहीं करते । साधुकी यह मूर्खता देखकर ये भी फिर और आगे जाकर चमड़ा धोने लगे। इनकी बार-बार यह शैतानी देखकर साधुको बड़ा गुस्सा आया । तब वह और आगे चला गया । इसके पीछे हो ये दोनों भी जाकर फिर अपना काम करने लगे । गर्ज यह कि इन्होंने उस साधुको बहुत ही कष्ट दिया । तब हार खाकर बेचारेको अपना जप-तप,
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