Book Title: Aradhana Katha kosha
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 415
________________ आराधना कथाकोश बड़े विनयके साथ धर्मका स्वरूप पूछा- तब ऋजुमति मुनिने उसे इस प्रकार संक्षेप में धर्मका स्वरूप कहा ४०० -- प्रीतिकर, धर्म उसे कहते हैं जो संसारके दुःखोंसे रक्षाकर उत्तम सुख प्राप्त करा सके । ऐसे धर्मके दो भेद हैं। एक मुनिधर्म और दूसरा गृहस्थधर्म | मुनियोंका धर्म सर्व त्याग रूप होता है । सांसारिक माया-ममता से उसका कुछ सम्बन्ध नहीं रहता । और वह उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि दस आत्मिक शक्तियोंसे युक्त होता है। गृहस्थधर्म में संसार के साथ लगाव रहता है । घर में रहते हुए धर्मका पालन करना पड़ता है । मुनिधर्म उन लोगोंके लिये है जिनका आत्मा पूर्ण बलवान् है, जिनमें कष्टों के सहने की पूरी शक्ति है और गृहस्थ धर्म मुनिधर्मके प्राप्त करनेकी सीढ़ी है । जिस प्रकार एक साथ सौ-पचास सीढ़ियाँ नहीं चढ़ी जा सकतीं उसी प्रकार साधारण लोगों में इतनी शक्ति नहीं होती कि वे एकदम मुनिधर्म ग्रहण कर सकें । उसके अभ्यासके लिये वे क्रम-क्रमसे आगे बढ़ते जांय, इसलिये पहले उन्हें गृहस्थधर्मका पालन करना पड़ता है। मुनिधर्म और गृहस्थधर्म में सबसे बड़ा भेद यह है कि, पहला साक्षात् मोक्षका कारण है और दूसरा परम्परासे । श्रावकधर्मका मूल कारण है- सम्यग्दर्शनका पालन | यही मोक्ष - सुखका बीज है । बिना इसके प्राप्त किये ज्ञान, चारित्र वगैरहकी कुछ कीमत नहीं । इस सम्यग्दर्शनको आठ अंगों सहित पालना चाहिये । सम्यक्त्व पालने के पहले मिथ्यात्व छोड़ा जाता है । क्योंकि मिथ्यात्व ही आत्माका एक ऐसा प्रबल शत्रु है जो संसार में इसे अनन्त काल तक भटकाये रहता है और कुगतियों के असह दुःखोंको प्राप्त कराता है । मिथ्यात्वका संक्षिप्त लक्षण है - जिन भगवान् के उपदेश किये तत्व या धर्मसे उलटा चलना और यही धर्मसे उलटापन दुःखका कारण है । इसलिये उन पुरुषोंको, जो सुख चाहते हैं, मिथ्यात्वके परित्याग पूर्वक शास्त्राभ्यास द्वारा अपनी बुद्धिको काँचके समान निर्मल बनानी चाहिये । इसके सिवा श्रावकों को मद्य, मांस और मधु (शहद) का त्याग करना चाहिये । क्योंकि इनके खाने से जीवोंको नरकादि दुर्गतियों में दुःख भोगना पड़ते हैं | श्रावकों के पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रत हैं, उन्हें धारण करना चाहिए । रातके भोजनका, चमड़ेमें रखे हुये हींग, जल, घी, तेल आदिका तथा कन्दमूल, आचार और मक्खनका श्रावकों को खाना उचित नहीं । इनके खानेसे मांस त्याग व्रतमें दोष आता है। जुआ खेलना, चोरी करना, परस्त्री सेवन, वेश्या सेवन, शिकार करना, मांस खाना, मदिरा पोना, ये सात व्यसन - दुःखों को देनेवाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472