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व्यंजनहीन अर्थकी कथा
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जब बेचारे पंडितजी भोजन करनेको बैठते तब चावलोंमें घी वगैरहके साथ थोड़ा कोयला भी पीसकर मिला दिया जाया करता था ।
जब राजा विजय प्राप्त कर लौटे तब उन्होंने पंडितजीसे कुशल समाचार उत्तरमें पूछा । उत्तर में पंडितजीने कहा- राजाधिराज, आपके पुण्य प्रसाद से मैं हूँ तो अच्छी तरह, पर खेद है कि आपके कुल परम्पराकी रीति अनुसार मुझसे मसि-कोयला नहीं खाया जा सकता। इसलिए अब क्षमा कर आज्ञा दें तो बड़ी कृपा हो । राजाको पंडितजीकी बातका बड़ा अचम्भा हुआ । उनकी समझ में न आया कि बात क्या है। उन्होंने फिर उसका खुलासा पूछा । जब सब बातें उन्हें जान पड़ीं तब उन्होंने रानीसे पूछा- मैंने तो अपने पत्र में ऐसी कोई बात न लिखी थी, फिर पंडितजीको ऐसा खानेको दिया जाकर क्यों तंग किया जाता था ? रानीने राजाके हाथ में उनका लिखा हुआ पत्र देकर कहा - आपके बाँचनेवालेने हमें यहो मतलब समझाया था । इसलिए यह समझकर कि ऐसा करनेसे राजा साहबका कोई विशेष मतलब होगा, मैंने ऐसी व्यवस्था की थी । सुनकर राजाको बड़ा गुस्सा आया । उन्होंने पत्र बाँचनेवालेको उसी समय देश निकाले की सजा देकर उसे अपने शहर बाहर करवा दिया । इसलिए बुद्धिवानों को उचित है कि वे लिखने-बाँचने में ऐसा प्रमाद का अर्थ कर अनर्थ न करें ।
यह विचार कर जो पवित्र आचरणके धारों और ज्ञान जिनका धन है ऐसे सत्पुरुष भगवान् के उपदेश किये हुए, पुण्यके कारण और यश तथा आनन्दको देनेवाले ज्ञान - सम्यग्ज्ञानके प्राप्त करनेका भक्तिपूर्वक यत्न करेंगे वे अनन्तज्ञानरूपी लक्ष्मीका सर्वोच्च सुख लाभ करेंगे ।
६५. व्यंजनहीन अर्थकी कथा
निर्मल केवलज्ञानके धारक श्रीजिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर व्यंजनहीन अर्थ करनेवालेकी कथा लिखी जाती है ।
गुरुजांगल देशकी राजधानी हस्तिनापुर के राजा महापद्म थे । ये बड़े धर्मात्मा और जिन भगवान् के सच्चे भक्त थे । इनकी रानीका नाम पद्मश्री
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