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आराधना कथाकोश
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सबका उत्तर उन्हें बराबर मिला। उत्तर हो न मिला किन्तु श्रेणिकको हतप्रभ भी होना पड़ा। इसलिये कि वे उन ब्राह्मणोंको इस बातकी सजा देना चाहते थे कि उन्होंने मेरे साथ सहानुभूति क्यों न बतलाई ? पर वे सजा दे नहीं पाये । श्रेणिकको जब यह मालूम हुआ कि कोई एक विदेशी नन्द गाँव में है । वही गाँव के लोगोंको ये सब बातें सुझाया करता है । उन्हें उस विदेशीकी बुद्धि देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और सन्तोष भी हुआ । श्रेणिककी उत्कण्ठा तब उसके देखनेके लिये बढ़ी। उन्होंने एक पत्र लिखा । उसमें लिखा कि "आपके यहाँ जो एक विदेशी आकर रहा है, उसे मेरे पास मेजिये । पर साथ में उसे इतना और समझा देना कि वह न तो रात में आये, और न दिनमें, न सीधे रास्तेसे आये और न टेढ़े-मेढ़े रास्ते ।
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अभयकुमारको पहले तो कुछ जरा विचारमें पड़ना पड़ा, पर फिर उसे इसके लिये भी युक्ति सूझ गई और अच्छी सूझी। वह शामके वक्त गाड़ी के एक कोने में बैठकर श्रेणिकके दरबार में पहुँचा । वहाँ वह देखता है तो सिंहासन पर एक साधारण पुरुष बैठा है-उस पर श्रेणिक नहीं है । वह बड़ा आश्चर्यमें पड़ गया। उसे ज्ञात हो गया कि यहाँ भी कुछ न कुछ चाल खेली गई है । बात यह थी कि श्रेणिक अंगरक्षक पुरुषोंके साथ बैठ गये थे । उनकी इच्छा थी कि अभयकुमार मुझे न पहचान कर लज्जित हो। इसके बाद ही अभयकुमारने एक बार अपनी दृष्टि राजसभा पर डाली । उसे कुछ गहरी निगाहसे देखने पर जान पड़ा कि राजसभामें बैठे हुए लोगों की नजर बार-बार एक पुरुष पर पड़ रही है और वह लोगोंकी अपेक्षा सुन्दर और तेजस्वी है । पर आश्चर्य यह कि वह राजाके अंगरक्षक लोगोंमें बैठा है । अभयकुमारको उसी पर कुछ सन्देह गया । तब उसके कुछ चिह्नोंको देखकर उसे दृढ़ विश्वास हो गया कि यही मेरे पूज्य पिता श्रेणिक हैं । तब उसने जाकर उनके पाँवों में अपना सिर रख लिया । श्रेणिकने उठाकर झट उसे छाती से लगा लिया। वर्षों बाद पिता पुत्रका मिलाप हुआ। दोनोंको ही बड़ा आनन्द हुआ । इसके बाद श्रेणिकने पुत्रप्रवेशके उपलक्ष्य में प्रजाको उत्सव मनानेकी आज्ञा की। खूब आनन्द उत्सव मनाया गया । दुखी, अनाथोंको रान किया गया। पूजा - प्रभावना की गई। सच है, कुलदीपक पुत्रके लिये कौन खुशी नहीं मनाता ? इसके बाद ही श्रेणिने अपने कुछ आदमियोंको भेजकर कांचीमे अभयमती और वसुमित्रा इन दोनों प्रियाओंको भी बुलवा लिया ! इस प्रकार प्रिया-पुत्र
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