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सम्यग्दर्शनके प्रभावको कथा
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भरी आहको नागदत्ताने सुन लिया । वह दौड़ी आकर अपनी माँसे बोलीमाँ, इसके लिए आप क्यों दुःख करती हैं । मेरा जब भाग्य ही ऐसा है, तब उसके लिए दुःख करना व्यर्थ है और अभी मुझे विश्वास है कि मेरे स्वामीका इस दशासे उद्धार हो सकता है । इसके बाद नागदत्ताने अपनी माँको स्वामीके उद्धारके सम्बन्धकी बात समझा दी ।
सदा के नियमानुसार आज भी रात के समय वसुमित्र अपना सर्प- शरीर छोड़कर मनुष्य रूपमें आया और अपने शय्या भवनमें पहुँचा। इधर समुद्रदत्ता छुपे हुए आकर वसुदत्तके पिटारेको वहाँसे उठा ले आई और उसी समय उसने उसे जला डाला । तबसे वसुमित्र मनुष्य रूपमें ही अपनी प्रिया के साथ सुख भोगता हुआ अपना समय आनन्दसे बिताने लगा ।” नाथ, उसी तरह ये साधु भी निरन्तर विष्णुलोक में रहकर सुख भोगें यह मेरी इच्छा थी; इसलिए मैंने वैसा किया था । महारानी चेलनीकी कथा सुनकर श्रेणिक उत्तर तो कुछ नहीं दे सके, पर वे उस पर बहुत गुस्सा हुए और उपयुक्त समय न देखकर वे अपने क्रोधको उस समय दबा गये ।
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एक दिन श्रेणिक शिकार के लिए गये हुए थे । उन्होंने वनमें यशोधर मुनिराजको देखा । वे उस समय आतप योग धारण किये हुए थे । श्रेणिकने उन्हें शिकार के लिए विघ्नरूप समझ कर मारनेका विचार किया और बड़े गुस्से में आकर अपने क्रूर शिकारी कुत्तोंको उन पर छोड़ दिया । कुत्ते बड़ी निर्दयता के साथ मुनिके खानेको झपटे। पर मुनिराजको तपस्याके प्रभावसे वे उन्हें कुछ कष्ट न पहुँचा सके। बल्कि उनकी प्रदक्षिणा देकर उनके पाँवोंके पास खड़े रह गये। यह देख श्रेणिकको और भी क्रोध आया । उन्होंने क्रोधान्ध होकर मुनि पर बाण चलाना आरम्भ किया । पर यह कैसा आश्चर्य जो बाणोंके द्वारा उन्हें कुछ क्षति न पहुँच कर वे ऐसे जान पड़े मानों किसीने उन पर फूलोंकी वर्षा की है। सच, बात यह है कि तपस्वियोंका प्रभाव कौन कह सकता है। श्रेणिकने उन मुनिहिंसारूप तीव्र परिणामों द्वारा उस समय सातवें नरककी आयुका बन्ध किया, जिसकी स्थिति तेतीस सागर की है ।
इन सब अलौकिक घटनाओंको देखकर श्रेणिकका पत्थरके समान कठोर हृदय फूल-सा कोमल हो गया, उनके हृदयकी सब दुष्टता निकल कर उसमें मुनिके प्रति पूज्यभाव पैदा हो गया, वे मुनिराजके पास गये और भक्ति से मुनिके चरणोंको नमस्कार किया । यशोधर मुनिराजने श्रेणिकके हित के लिए इस समयको उपयुक्त समझ उन्हें अहिंसामयी पवित्र
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