Book Title: Aradhana Katha kosha
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 376
________________ मनुष्य जन्म की दुर्लभताके दस दृष्टान्त ३६१ की उसमें योग्यता थी । इसलिये अपने पिता की मृत्युके बाद उनकी जगह इसे न मिल सकी, जो कि एक अच्छी प्रतिष्ठित जगह थी। और यह सच है कि बिना कुछ योग्यता प्राप्त किये राज-सेवा आदिमें आदर-मानकी जगह मिल भी नहीं सकती । इसकी इस दशा पर माताको बड़ा दुःख हुआ । पर बेचारी कुछ करने धरनेको लाचार थी। वह अपनी गरीबोके मारे एक पुरानी गिरो पड़ी झोंपड़ी में आकर रहने लगी और जिस किसी प्रकार अपना गुजारा चलाने लगी। उसने भावी आशासे वसुदेव से कुछ काम लेना शुरू किया । वह लड्डू, पेड़ा, पान आदि वस्तुएँ एक खोमचे में रखकर उसे आस-पास के गाँवोंमें भेजने लगी, इसलिये कि वसुदेवको कुछ परिश्रम करना आ जाय, वह कुछ हुशियार हो जाय । ऐसा करनेसे सुमित्रा - को सफलता प्राप्त हुई और वसुदेव कुछ सीख भी गया। उसे पहले की तरह अब निकम्मा बैठे रहना अच्छा न लगने लगा । सुमित्राने तब कुछ वसीला लगाकर वसुदेवको राजाका अंगरक्षक नियत करा दिया। एक दिन चक्रवर्ती हवा-खोरीके लिये घोड़े पर सवार हो शहर बाहर हुए। जिस घोड़े पर वे बैठे थे वह बड़े दुष्ट स्वभावको लिए था । सो जरा ही पांवकी ऐड़ी लगाने पर वह चक्रवर्तीको लेकर हवा हो गया। बड़ी दूर जाकर उसने उन्हें एक बड़ी भयावनी वनीमें ला गिराया । इस समय चक्रवर्ती बड़े कष्ट में थे । भूख-प्यास से उनके प्राण छटपटा रहे थे । पाठकोंको स्मरण है कि इनके अंगरक्षक वसुदेवको उसकी माँने चलने-फिरने और -दौड़ने-दुड़ाने के काम में अच्छा हुशियार कर दिया था । यही कारण था कि जिस समय चक्रवर्तीको घोड़ा लेकर भागा, उस समय वसुदेव भी कुछ खाने-पीने की वस्तुयें लेकर उनके पीछे-पीछे बेतहाशा भागा गया । चक्र- वर्त्तीको आध-पौन घंटा वनीमें बैठे हुआ होगा कि इतनेमें वसुदेव भी उनके पास जा पहुँचा । खाने-पीनेको वस्तुएँ उसने महाराजकी भेंट की । चक्रवर्त्ती उससे बहुत सन्तुष्ट हुए । सच है, योग्य समय में थोड़ा भी दिया हुआ सुखका कारण होता है । जैसे बुझते हुए दोये में थोड़ा भी तेल डालनेसे वह झटसे तेज हो उठता है । चक्रवर्त्तीने खुश होकर उससे पूछा तू कौन है ? उत्तर में वसुदेवने कहा - महाराज, सहस्रभट सामन्तका मैं पुत्र हूँ । चक्रवर्ती फिर विशेष कुछ पूछ-ताछ न करके चलते समय उसे एक रत्नमयी कंकण देते गये । अयोध्या में पहुँच कर ही उन्होंने कोतवालसे कहा- मेरा कड़ा लो गया है, उसे ढूंढ़कर पता लगाइए। राजाज्ञा पाकर कोतवाल उसे ढूंढ़ने को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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