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आराधना कथाकोश
बेजा बात उसमें नहीं पाती कि जिससे मझे उसके छोडनेके लिए बाध्य होना पड़े। बल्कि मैं आपको भी सलाह दूंगो कि आप इसो सच्चे और जीवका मात्रका हित करनेवाले जैनधर्मको ग्रहण कर लें तो बड़ा अच्छा हो। इसी प्रकार इन दोनों पति-पत्नी में परस्पर बात-चीत हआ करती थी। अपने-अपने धर्मको दोनों हो तारीफ किया करते थे। रुद्रदत्त जरा अधिक हठी था। इसलिए कभी-कभी जिनमती पर वह जरा गुस्सा भी हो जाता था। पर जिनमती बुद्धिमतो और चतुर थी, इसलिए वह उसकी नाराजगो पर कभी अप्रसन्नता जाहिर न करती। 'बल्कि उसकी नाराजीको हँसीका रूप दे झटसे रुद्रदत्तको शान्त कर देती थी। जो हो, पर ये रोज-रोजको विवाद भरी बातें सुखका कारण नहीं होतीं।
इस तरह बहत समय बीत गया। एक दिन ऐसा मौका आया कि दुष्ट भीलोंने शहरके किसी हिस्से में आग लगा दी। चारों ओर आग बुझानेके लिए दौड़ा-दौड़ पड़ गई। उस भयंकर आगको देखकर लोगोंको अपनी जानका भी सन्देह होने लगा। इस समयको योग्य अवसर देख जिनमतीने अपने स्वामी रुद्रदत्तसे कहा-प्राणनाथ, मेरी बात सुनिए। रोज-रोजका जो अपनेमें वाद-विवाद होता है, मैं उसे अच्छा नहीं समझती । मेरो इच्छा है कि यह झगड़ा रफा हो जाय । ___इसके लिए मेरा यह कहना है कि आज अपने शहर में आग लगी है उस आगको जिसका देव बुझा दे, समझना चाहिए कि वही देव सच्चा है और फिर उसीको हमें परस्परमें स्वीकार कर लेना चाहिए। रुद्रदत्तने जिनमतीकी यह बात मान ली। उसने तब कुछ लोगोंको इस बातका गवाह कर महादेव, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवोंके लिए अर्घ दिया, बड़ी भक्तिसे उनकी पूजा-स्तुति कर उसने अग्निशान्तिके लिए प्रार्थना की। पर उसकी इस प्रार्थनाका कुछ उपयोग न हआ। अग्नि जिस भयंकरताके साथ जल रही थी वह उसी तरह जलती रही। सच है, ऐसे देवोंसे कभी उपद्रवोंकी शान्ति नहीं होती, जिनका हृदय दुष्ट है, जो मिथ्यात्वी हैं ।
अब धर्मवत्सला जिनमतीको बारी आई। उसने बड़ी भक्तिसे पंच परमेष्ठियोंके चरण-कमलोंको अपने हृदयमें विराजमान कर उनके लिये अर्घ चढ़ाया। इसके बाद वह अपने पति, पूत्र आदि कुटुम्ब वर्गको अपने पास बैठाकर आप कायोत्सर्ग ध्यान द्वारा पंच-नमस्कार मन्त्रका चिन्तन करने लगी। इसकी इस अचल श्रद्धा और भक्तिको देखकर शासन देवता बड़ी
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