Book Title: Aradhana Katha kosha
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 390
________________ ३७५ सम्यक्त्वको न छोड़नेवालेको कथा १०६. सम्यक्त्वको न छोड़नेवालेंकी कथा जिन्हें स्वर्गके देव नमस्कार करते हैं. उन जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार कर सम्यक्त्वको न छोड़नेवाली जिनमतीकी कथा लिखी जाती है । लाटदेशके सुप्रसिद्ध गलगोद्रह नामके शहरमें जिनदत्त नामका एक सेठ हो चुका है। उसकी स्त्रीका नाम जिनदत्ता था। इसके जिनमतो नामकी एक लड़की थो। जिनमती बहत सुन्दरो थो। उसकी भुवन-मोहिनी सुन्दरता देखकर स्वर्गकी अप्सराएँ भी लजा जातो थीं। पुण्यसे सुन्दरता प्राप्त होती ही है। ___ यहीं पर एक दूसरा और सेठ रहता था। इसका नाम नागदत्त था। नागदत्तकी स्त्री नागदत्ताके रुद्रदत्त नामका एक लड़का था। नागदत्तने बहुतेरा चाहा कि जिनदत्त जिनमतीका ब्याह उसके पुत्र रुद्रदत्तसे कर दे । पर उसको विधर्मी होनेसे जिनदत्तने उसे अपनो पुत्रो न ब्याहो । जिनदत्त. का यह हठ नागदत्तको पसन्द न आया। उसने तब एक दूसरी ही युक्ति की। वह यह कि नागदत्त और रुद्रदत्त समाधिगुप्त मुनिसे कुछ व्रतनियम लेकर श्रावक बन गये और श्रावक सरीखी सब क्रियाएँ करने लगे। जिनदत्तको इससे बड़ो खुशी हुई। और उसे इस बात पर पूरापूरा विश्वास हो गया कि वे सचमुच ही जैनी हो गये हैं। तब इसने बड़ी खुशीके साथ जिनमतीका ब्याह रुद्रदत्तसे कर दिया। जहाँ ब्याह हुआ कि इन दोनों पिता-पुत्रोंने जैनधर्म छोड़कर पीछा अपना धर्म ग्रहण कर लिया। रुद्रदत्त अब जिनमतीसे रोज-रोज आग्रहके साथ कहने लगा कि प्रिये, तुम भी अब क्यों न मेरा ही धर्म ग्रहण कर लेती हो। वह बड़ा उत्तम धर्म है । जिनमतीकी जिनधर्म पर गाढ़ श्रद्धा थी। वह जिनेन्द्र भगवान्-. को सच्चो सेविका थी। ऐसी हालतमें उसे जिनधर्मके सिवा अन्य धर्म कैसे रुच सकता था। उसने तब अपने विचार बड़ो स्वतन्त्रताके साथ अपने स्वामो पर प्रगट किये। वह बोली-प्राणनाथ, आपका जैसा विश्वास हो, उस पर मुझे कुछ कहना-सुनना नहीं। पर मैं अपने विश्वासके अनुसार यह कहूँगी कि संसारमें जैनधर्म हो एक ऐसा धर्म है जो सर्वोच्च होनेका दावा कर सकता है। इसलिए कि जोवमात्रका उपकार करनेको उसमें योग्यता है और बड़े-बड़े राजे-महाराजे, स्वर्गके देव, विद्याधर और चक्रवर्ती आदि उसे पूजते-मानते हैं। फिर में ऐसी कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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