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हरिषेण चक्रवर्तीकी कथा
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पशु देव हो गया ! इसलिये धर्म या गुरुसे बढ़कर संसारमें कोई सुखका कारण नहीं है ।
वह जैनधर्म जयलाभ करे, संसार में निरन्तर चमकता रहे, जिसके प्रसादसे एक तुच्छ प्राणी भो देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषोंकी सम्पत्ति लाभ कर उसका सुख भोगकर अन्तमें मोक्षश्रीका अनन्त, अविनाशी सुख प्राप्त करता है । इसलिये आत्महित चाहनेवाले बुद्धिवानोंको उचित है, उनका कर्त्तव्य है कि वे मोक्षसुखके लिये परम पवित्र जैनधर्मके प्राप्त करनेका और प्राप्त कर उसके पालनेका सदा यत्न करें ।
६८. हरिषेण चक्रवर्तीकी कथा
केवलज्ञान जिनका नेत्र है ऐसे जिन भगवान्को नमस्कार कर हरिपेण चक्रवर्ती की कथा लिखी जाती है ।
अंगदेशके सुप्रसिद्ध कांपिल्य नगरके राजा सिंहध्वज थे। इनकी रानीका नाम वप्रा था । कथानायक हरिषेण इन्हींका पुत्र था । हरिषेण बुद्धिमान् था, शूरवीर था, सुन्दर था, दानी था और बड़ा तेजस्वी था । सब उसका बड़ा मान - आदर करते थे ।
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हरिषेणकी माता धर्मात्मा थी । भगवान् पर उसकी अचल भक्ति थी । यही कारण था कि वह अठाईके पर्व में सदा जिन भगवान्का रथ निकलवाया करती और उत्सव मनाती। सिंहध्वजकी दूसरी रानी लक्ष्मीमतीको जैनधर्म पर विश्वास न था । वह सदा उसकी निन्दा किया करती थी । एक बार उसने अपने स्वामीसे कहा - प्राणनाथ, आज पहले मेरा -ब्रह्माजीका रथ शहर में घूमे, ऐसी आप आज्ञा दीजिये, सिंहध्वजने इसका परिणाम क्या होगा, इस पर कुछ विचार न कर लक्ष्मीमतीका कहा मान लिया। पर जब धर्मवत्सल वत्रा रानीको इस बातकी खबर मिली तो उसे बड़ा दुःख हुआ । उसने उसी समय प्रतिज्ञा की कि मैं खाना-पीना तभी करूँगी जबकि मेरा रथ पहले निकलेगा । सच है, सत्पुरुषों को धर्म ही शरण होता है, उनकी धर्म तक ही दौड़ होती है ।
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