________________
३४६
आराधना कथाकोश
६३. अक्षरहीन अर्थकी कथा
जिन भगवान् के चरणों को नमस्कार कर अक्षरहोन अर्थको कथा लिखी जाती है ।
मगधदेश की राजधानी राजगृहके राजा जब वोरसेन थे, उस समयको यह कथा है । वीरसेनकी रानोका नाम वीरसेना था । इनके एक पुत्र हुआ, उसका नाम रखा गया सिंह । सिंहको पढ़ानेके लिए वीरसेन महाराजने सोमशर्मा ब्राह्मणको रक्खा । सोमशर्मा सब विषयोंका अच्छा विद्वान् था |
पोदनापुर के राजा सिंहरथके साथ वीरसेनकी बहुत दिनोंसे शत्रुता चली आती थी । सो मौका पाकर वीरसेनने उस पर चढ़ाई कर दी । वहाँसे वोरसेनने अपने यहाँ एक राज्य व्यवस्थाकी बाबत पत्र लिखा। और और समाचारोंके सिवा पत्रमें वोरसेनने एक यह भी समाचार लिख दिया था कि राजकुमार सिंहके पठन-पाठनकी व्यवस्था अच्छी तरह करना । इसके लिए उन्होंने यह वाक्य लिखा था कि 'सिहो ध्यापयितव्यः" । जब यह पत्र पहुँचा तो इसे एक अर्धदग्धने बाँचकर सोचा -'ध्ये' धातुका अर्थ है स्मृति या चिन्ता करना । इसलिए इसका अर्थ हुआ कि 'राजकुमार पर अब राज्य-चिन्ताका भार डाला जाय' । उसे अब पढ़ाना उचित नहीं । बात यह थी कि उक्त वाक्यके पृथक् पद करनेसे - ' सिंहः अध्यापयितव्यः ऐसे पद होते हैं और इनका अर्थ होता है - सिंह को पढ़ाना, पर उस बाँचनेवाले अर्धदग्धने इस वाक्यके - 'सिंहः ध्यापयितव्य" ऐसे पद समझकर इसके सन्धिस्थ अकार पर ध्यान न दिया और केवल 'ध्यै' धातुसे बने हुए 'ध्यापयितव्यः' का चिन्ता अर्थ करके राजकुमारका लिखना पढ़ना छुड़ा दिया | व्याकरणके अनुसार तो उक्त वाक्यके दोनों ही तरह पद होते हैं और दोनों ही शुद्ध हैं, पर यहाँ केवल व्याकरणकी हो दरकार न थी । कुछ अनुभव भी होना चाहिए था । पत्र बाँचनेवालेमें इस अनुभव की कमी होनेसे उसने राजकुमारका पठन-पाठन छुड़ा दिया। इसका फल यह हुआ कि जब राजा आये और अपने कुमारका पठन-पाठन छूटा हुआ देखा तो उन्होंने उसके कारणकी तलाश की । यथार्थ बात मालूम हो जाने पर उन्हें उस अर्धदग्ध - मूर्ख पत्र बाँचनेवाले पर बड़ा गुस्सा आया । उन्होंने इस मूर्खता की उसे बड़ी कड़ी सजा दी। इस कथासे भव्यजनों को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वे कभी ऐसा प्रमाद न करें, जिससे कि अपने कार्य को किसी भी तरह की हानि पहुँचे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org