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चाणक्यको कथा
३०९ इस समय तो उन राजोंसे सुलह कर नन्दकी रक्षा कर ली। पर अब उसे अपना बैर निकालनेकी चिन्ता हुई । वह किसी ऐसे मनुष्यकी खोज करने लगा, जिससे उसे सहायता मिल सके । एक दिन कावी किसी वनमें हवाखोरीके लिए गया हुआ था। इसने वहाँ एक मनुष्यको देखा कि जो काँटोंके समान चुभनेवाली दुबाको जड़-मूलसे उखाड़-उखाड़ कर फेंक रहा था । उसे एक निकम्मा काम करते देखकर कावीने चकित होकर पूछा--- ब्राह्मणदेव, इसे खोदनेमे तुम्हारा क्या मतलब है ? क्यों बे-फायदा इतनी तकलीफ उठा रहे हो? इस मनुष्य का नाम चाणक्य था। इसका उल्लेख ऊपर आ चुका है ? चाणक्यने तब कहा-वाह महाशय ! इसे आप बेफायदा बतलाते हैं। आप जानते हैं कि इसका क्या अपराध है ? सुनिये ! इसने मेरा पाँव छेद डाला और मुझे महा कष्ट दिया, तब मैं ही क्यों इसे छोड़ने चला ? मैं तो इसका जड़मूलसे नाश कर ही उठेगा। यही मेरा संकल्प है । तब कावीने उसके हृदयकी थाह लेनेके लिए कि इसकी प्रतिहिंसाकी आग कहाँ जाकर ठण्डी पड़ती है, कहा-तो महाशय ! अब इस बेचारीको क्षमा कीजिए, बहुत हो चुका । उत्तरमें चाणक्यने कहा-नहीं, तब तक इसके खोदने से लाभ ही क्या जब तक कि इसकी जड़ें बाकी रह जायँ । उस शत्रुके मारनेसे क्या लाभ जब कि उसका सिर न काट लिया जाये ? चाणक्यकी यह ओजस्विता देखकर कावीको बहुत संतोष हआ। उसे निश्चय हो गया कि इसके द्वारा नन्दकुलका जड़-मूल से नाश हो सकेगा। इससे अपनेको बहत सहायता मिलेगी। अब सूर्य और राहुका योग मिला देना अपना काम है। किसी तरह नन्दके सम्बन्धमें इसका मनमुटाव करा देना हो अपने कार्यका श्रीगणेश हो जायगा । कावी मंत्री इस तरहका विचार कर ही रहा था कि प्यासेको जलकी आशा होनेकी तरह एक योग मिल ही गया। इसी समय चाणक्यकी स्त्री यशस्वतीने । आकर चाणक्यसे कहा-सुनती हूँ, राजा नन्द ब्राह्मणोंको गौ दान किया करते हैं। तब आप भी जाकर उनसे गौ लाइए न? चाणक्यने कहाअच्छी बात है, मैं अपने महाराजके पास जाकर जरूर गौ लाऊँगा। यशस्वतीके मुंहसे यह सुनकर कि नन्द गौओंका दान किया करता है, कावी मंत्रो खुश होता हुआ राजदरबारमें गया और राजासे बोलामहाराज ! क्या आज आप गौएं दान करेंगे? ब्राह्मणोंको इकट्ठा करनेकी योजना की जाय ? महाराज, आपको तो यह पुण्यकार्य करना ही चाहिए। धनका ऐसी जगह सदुपयोग होता है। मंत्रीने अपना चक्र चलाया और वह राजा पर चल भी गया। सच है, जिनके मनमें कुछ और होता है, जो
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