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आराधना कथाकोश
८२. शकटाल मुनिकी कथा सुखके देनेवाले और संसारका हित करनेवाले जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंको नमस्कार कर शकटाल मुनिकी कथा लिखी जाती है । ___ पाटलिपुत्र (पटना) के राजा नन्दके दो मंत्री थे । एक शकटाल और दूसरा वररुचि । शकटाल जैनी था, इसलिए सुतरां उसकी जैनधर्म पर अचल श्रद्धा या प्राति थी। और वररुचि जैनी नहीं था, इसलिए सतरां उसे जैनधर्मसे, जैनधर्मके पालनेवालोंसे द्वेष था, ईर्षा थी। और इसीलिए शकटाल और वररुचिकी कभी न बनती थी, एकसे एक अत्यन्त विरुद्ध थे।
एक दिन जैनधर्मके परम विद्वान् महापद्म मुनिराज अपने संघको साथ लिये पटनामें आये। शकटाल उनके दर्शन करनेको गया । बड़ी भक्तिके साथ उसने उनकी पूजा-वन्दना की और उनके पास बैठकर मुनि और गृहस्थ धमका उनसे पवित्र उपदेश सुना। उपदेशका शकटालके धामिक अतएव कोमल हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह उसी समय संसारका सब मायाजाल तोड़कर दीक्षा ले मुनि हो गया। इसके बाद उसने अपने गुरु द्वारा सिद्धान्तशास्त्रका अच्छा अभ्यास किया। थोड़े ही दिनोंमें शकटाल मुनिने कई विषयों में बहुत ही अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। गुरु इनको बुद्धि, विद्वत्ता, तर्कनाशक्ति और सर्वोपरि इनकी स्वाभाविक प्रतिभा देखकर बहुत ही खुश हुए। उन्होंने अपना आचार्यपद अब इन्हें ही दे दिया। यहाँसे ये धर्मोपदेश और धर्म प्रचारके लिए अनेक देशों, शहरों और गाँवोंमें घूमे-फिरे । इन्होंने बहतोंको आत्महित साधक पवित्र मार्ग पर लगाया और दुर्गतिके दुःखोंका नाश करनेवाले पवित्र जैनधर्मका सब ओर प्रकाश फैलाया। इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुए ये एक बार फिर पटनामें आये।
एक दिनकी बात है कि शकटाल मुनि राजाके अन्तःपुरमें आहार कर तपोवनकी ओर जा रहे थे। मंत्री वररुचिने इन्हें देख लिया। सो इस पापीने पुराने बैरका बदला लेनेका अच्छा मौका देखकर नन्दसे कहामहाराज, आपको कुछ खबर है कि इस समय अपना पुराना मंत्रो पापी शकटाल भीखके बहाने आपके अन्तःपुरमें, रनवासमें घुसकर न जाने क्या अनर्थ कर गया है ! मुझे तो उसके चले जाने बाद ये समाचार मिले, नहीं तो मैंने उसे कभीका पकड़वा कर पापकी सजा दिलवा दी होती । अस्तु, आपको ऐसे धूतॊके लिए चुप बैठना उचित नहीं। सच है, दुर्गतिमें जानेवाले ऐसे पापी लोग बुरासे बुरा कोई काम करते नहीं चूकते । नन्दने अपने
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