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आराधना कथाकोश
बुद्धिमतीके उत्तरसे उसे जान पड़ा कि वह उसे चाहती है और इसीलिए. पिताको भोजन के लिये पुकारते समय व्यंग से जा पर उसने अपना भाव प्रगट किया था। राजा उसकी सुन्दरता पर पहले हीसे मुग्ध था, सो वह बुद्धिमतीकी बातों से बड़ा खुश हुआ । उसने फिर बुद्धिमतीके साथ ब्याह भी कर लिया । धीरे-धीरे राजाका उस पर इतना अधिक प्रेम बढ़ गया कि अपनी सब रानियोंमें पट्टरानी उसने उसे हो बना दिया । सच बात यह है कि प्राणियोंकी उन्नति के लिये उनके गुण ही उनका दूतपना करते हैं, उन्हें उन्नति पर पहुँचा देते हैं ।
राजाने बुद्धिमतीको सारे रनवासकी स्वामिनी बना तो दिया, पर उसमें सब रानियाँ उस बेचारीकी शत्रु बन गईं, उससे डाह, ईर्षा करने लगीं । आते-जाते वे बुद्धिमती के सिर पर मारतीं और उसे बुरो भली सुनाकर बेहद कष्ट पहुँचातीं । बेचारी बुद्धिमती सीधी-साधी थी, सो न तो वह उनसे कुछ कहती और महाराजसे ही कभी उनको शिकायत करती । इस कष्ट और चिन्तासे मन ही मन घुलकर वह सूख सी गई । वह जब जिन मन्दिर दर्शन करने जाती तब सब सिद्धियोंके देनेवाले भगवान् के सामने खड़े हो अपने पूर्व कर्मोकी निन्दा करती और प्रार्थना करती कि हे संसार पूज्य, हे स्वर्ग- मोक्ष के सुख देनेवाले, हे दुःखरूपी दावानल के बुझानेवाले मेघ, और हे दयासागर, मैं एक छोटे कुल में पैदा हुई हूँ, इसीलिये मुझे ये सब कष्ट हो रहे हैं । पर नाथ, इसमें दोष किसीका नहीं । मेरे पूर्व जनमके पापोंका उदय है । प्रभो, जो हो, पर मुझे विश्वास है कि जीवोंको चाहे कितने हो कष्ट क्यों न सता रहे हों, जो आपको हृदयसे चाहता है, आपका सच्चा सेवक है, उसके सब कष्ट बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं । और इसीलिये हे नाथ, कामी, क्रोधी, मानी मायावी देवोंको छोड़कर मैंने आपकी शरण ली है । आप मेरा कष्ट दूर करेंगे ही। बुद्धिमती न मन्दिर में ही किन्तु महल पर भी अपने कर्मोंकी आलोचना किया करती । वह सदा एकान्तमें रहती और न किसीसे विशेष बोलतो चालती । राजाने उसके दुर्बल होनेका कारण पूछा -- बार-बार आग्रह किया, पर बुद्धिमतीने उससे कुछ भी न कहा ।
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बुद्धिमती क्यों दिनों दिन दुर्बल होती जाती है, इसका शोध लगाने के लिये एक दिन राजा उसके पहले जिनमन्दिर आ गया । बुद्धिमतीने प्रतिदिनकी तरह आज भी भगवान् के सामने खड़ी होकर आलोचना की । राजाने वह सब सुन लिया । सुनकर ही वह सीधा महल पर आया । अपनी सब रानियोंको उसने खूब ही फटकारा, धिक्कारा और बुद्धिमतीको
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