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जयसेन राजाकी कथा
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और कैसे हईं ? इसका कारण कुछ भी उसकी समझमें न आया । उसे यह भी सन्देह हुआ कि कहीं इन मुनिने तो यह काम न किया हो ? पर दूसरे ही क्षणमें उसने सोचा कि ऐसा नहीं हो सकता। इनका और पिताजीका कोई बैर-विरोध नहीं, लेना देना नहीं, फिर वे क्यों ऐसा करने चले ? और पिताजी तो इनके इतने बड़े भक्त थे। और न केवल यही बात थी कि पिताजी ही इनके भक्त हों, ये साधुजी भी तो उनसे बड़ा प्रेम करते थे; घण्टों तक उनके साथ इनकी धर्मचर्चा हुआ करती थी। फिर इस सन्देहको जगह नहीं रहती कि एक निस्पृह और शान्त योगी द्वारा यह अनर्थ घड़ा जा सके। तब हुआ क्या ? बेचारा वीरसेन बड़ी कठिन समस्यामें फँसा । वह इस प्रकार चिन्तातुर हो कुछ सोच-विचार कर ही रहा था कि उसकी नजर सामनेकी भींत पर जा पड़ी। उस पर यह लिखा हुआ, कि "दर्शन या धर्मकी डाहके वश होकर ऐसा हुआ है," देखते ही उसकी समझमें उसी समय सब बातें बराबर आ गई। उसके मनका अब रहा-सहा सन्देह भी दूर हो गया। उसकी अब मुनिराज पर अत्यन्त ही श्रद्धा हो गई। उसने मुनिराजके धैर्य और सहनपने की बड़ी प्रशंसा की। जैनधर्मके विषयमें उसका पूरा-पूरा विश्वास हो गया । जिनका दुष्ट स्वभाव है, जिनसे दूसरोंके धर्मका अभ्युदय-उन्नति नहीं सही जाती, ऐसे लोग जिनधर्म सरीखे पवित्र धर्म पर चाहे कितना ही दोष क्यों न लगावें, पर जिनधर्म तो बादलोंसे न ढके हुए सूरजकी तरह सदा ही निर्दोष रहता है।
जिस धर्मको चारों प्रकारके देव, विद्याधर, चक्रवर्ती, राजे-महाराजे आदि सभी महापुरुष भक्तिसे पूजते-मानते हैं, जो संसारके दुःखोंका नाश कर स्वर्ग या मोक्षका देनेवाला है, सुखका स्थान है, संसारके जीव मात्रका हित करनेवाला है और जिसका उपदेश सर्वज्ञ भगवान्ने किया है और , इसीलिए सबसे अधिक प्रमाण या विश्वास करने योग्य है, वह धर्म-वह आत्माको एक खास शक्ति मुझे प्राप्त होकर मोक्षका सुख दे।
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