________________
२९४
आराधना कथाकोश कोई सन्देह नहीं। कोतवालको बिना कुछ सुबूतके इस प्रकार जोर देकर कहते देखकर कुछ लोगोंके मन में यह विश्वास जम गया कि यह अपनी रक्षाके लिए जबरन इस बेचारे गरीब भिखारीको चोर बताकर सजा दिलवाना चाहता है । उसकी रक्षा हो जाय, इस आशयसे उन लोगोंने राजासे प्रार्थना की कि महाराज, कहीं ऐसा न हो कि बिना ही अपराधके इस गरीब भिखारीको कोतवाल साहबकी मार खाकर बेमौत मर जाना पड़े और इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये इसे मारेंगे अवश्य। तब कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे अपना हार भी मिल जाय और बेचारे गरीबकी जान भी न जाय । जो हो, राजाने उन लोगोंकी प्रार्थना पर ध्यान दिया या नहीं, पर यह स्पष्ट है कि कोतवाल साहब उस गरीब कोढ़ोको अपने घर लिवा ले गये और जहाँ तक उनसे बन पड़ा उन्होंने उसके मारनेपीटने, सजा देने, बाँधने आदिमें कोई कसर न की। वह कोढ़ी इतने दुःसह कष्ट दिये जाने पर भी हर बार यही कहता रहा कि मैं हर्गिज चोर नहीं हैं। दूसरे दिन कोतवालने फिर उसे राजाके सामने खड़ा करके कहामहाराज, यही पक्का चोर है। कोढ़ीने फिर भी यही कहा कि महाराज मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ। सच है, चोर बड़े ही कट्टर साहसी होते हैं ।
तब राजाने उससे कहा-अच्छा, मैं तेरा सब अपराध क्षमा कर तुझे अभय देता हूँ, तू सच्चा-सच्चा हाल कह दे कि तू चोर है या नहीं? राजासे जीवदान पाकर उस कोढ़ी या विद्युच्चरने कहा-यदि ऐसा है तो लीजिए कृपानाथ, मैं सब सच्ची बात आपके सामने प्रगट करे देता हूँ। यह कहकर वह बोला-राजाधिराज, अपराध क्षमा हो । वास्तवमें मैं ही चोर हूँ। आपके कोतवाल साहबका कहना सत्य है । सुनकर राजा चकित हो गये । उन्होंने तब विद्युच्च रसे पूछा-जब कि तू चोर था तब फिर तूने इतनी मारपीट कैसे सह ली रे ? विद्युच्चर बोला-महाराज, इसका तो कारण यह है कि मैंने एक मुनिराज द्वारा नरकोंके दुःखोंका हाल सुन रक्खा था। तब मैंने विचारा कि नरकोंके दुःखोंमें और इन दुःखोंमे तो पर्वत और राईका सा अन्तर है। और जब मैंने अनन्त बार नरकोंके भयंकर दुःख, जिनके कि सुनने मात्रसे ही छाती दहल उठती है, सहे हैं तब इन तुच्छ, ना कुछ चीज दुःखोंका सह लेना कौन बड़ी बात है ! यही विचार कर मैंने सब कुछ सहकर चं तक भी नहीं की। विद्यच्चरसे उसकी सच्ची घटना सुनकर राजाने खुश होकर उसे वर दिया कि तुझे 'जो कुछ माँगना हो माँग' । मुझे तेरी बातें सुननेसे बड़ी प्रसन्नता हुई। तब विधुच्चरने कहा-महाराज, आपकी इस कृपाका मैं अत्यन्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org