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कार्तिकेय मुनिको कथा
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समय अघातिया कर्मोंका नाश कर उन्होंने निर्वाण लाभ किया । सच है, महापुरुषोंका चारित्र मेरुसे भी कहीं अधिक स्थिर होता है ।
जिसके चित्तरूपी अत्यन्त ऊँचे पर्वतकी तुलना में बड़े-बड़े पर्वत एक ना कुछ चीज परमाणु की तरह दीखने लगते हैं, समुद्र दूबाकी अणी पर ठहरे जलकणसा प्रतीत होता है, वे गुणोंके समुद्र और कर्मोंको नाश करनेवाले वृषभसेन जिन मुझे अपने गुण प्रदान करें, जो सब मनचाही सिद्धियोंके देनेवाले हैं ।
६६. कार्त्तिकेय मुनिकी कथा
संसारके सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थोंको देखने जाननेके लिए केवलज्ञान जिनका सर्वोत्तम नेत्र है और जो पवित्रताकी प्रतिमा और सब सुखोंके दाता हैं, उन जिन भगवान्को नमस्कार कर कार्तिकेय मुनिकी कथा लिखी जाती है ।
कार्तिकपुरके राजा अग्निदत्तकी रानी वीरवतीके कृत्तिका नामकी एक लड़की थी। एक बार अठाईके दिनोंमें उसने आठ दिनके उपवास किये । अन्तके दिन वह भगवान्की पूजा कर शेषाको भगवान् के लिए चढ़ाई फूलमालाको लाई । उसे उसने अपने पिताको दिया । उस समय उसकी दिव्य रूपराशिको देखकर उसके पिता अग्निदत्तको नियत ठिकाने न रही । कामके वश हो उस पापीने बहुतसे अन्य धर्मो और कुछ जैन, साधुओं को इकट्ठा कर उनसे पूछा - योगी-महात्माओं, आप कृपा कर मुझे बतलावें कि मेरे घरमें पैदा हुए रत्नका मालिक मैं ही हो सकता हूँ या कोई और ? राजाका प्रश्न पूरा होता है कि सब ओरसे एक ही आवाज आई कि महाराज, उस रत्नके तो आप हो मालिक हो सकते हैं, न कि दूसरा । पर जैन साधुओंने राजा के प्रश्न पर कुछ गहरा विचार कर इस रूपमें राजाके प्रश्नका उत्तर दिया- राजन्, यह बात उत्पन्न हुए रत्नके मालिक आप हैं, पर एक उसकी मालिक पिताके नातेसे ही आप कर
ठीक है कि अपने यहाँ कन्या - रत्नको छोड़ कर । सकते हैं और रूपमें नहीं ।
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