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अभयघोष मुनिको कथा
२९१ जिनेन्द्र भगवान् मुझे भी कभी नाश न होनेवाला सुख देकर अविनाशी बनावें।
६७. अभयघोष मुनिकी कथा देवों द्वारा पूजा भक्ति किये गये जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर अभयघोष मुनिका चरित्र लिखा जाता है ।
अभयघोष काकन्दीके राजा थे उनकी रानीका नाम अभयमती था। दोनोंमें परस्पर बहुत प्यार था।
एक दिन अभयघोष घूमनेको जंगलमें गए हुये थे। इसी समय एक मल्लाह एक बड़े और जीवित कछुएके चारों पाँव बाँध कर उसे लकड़ीमें लटकाये हुए लिये जा रहा था। पापी अभयघोषको उस पर नजर पड़ गई। उन्होंने मुर्खताके वश हो अपनी तलवारसे उसके चारों पाँवोंको काट दिया। बड़े दुःखकी बात है कि पापी लोग बेचारे ऐसे निर्दोष जीवोंको निर्दयताके साथ मार डालते हैं और न्याय-अन्यायका कुछ विचार नहीं करते ! कछुआ उसी समय तड़फड़ा कर गत प्राण हो गया। मरकर वह अकाम-निर्जराके फलसे इन्हीं अभयघोषके यहाँ चंडवेग नामका पुत्र हुआ।
एक दिन राजाको चन्द्र-ग्रहण देखकर वैराग्य हुआ। उन्होंने विचार किया जो एक महान् तेजस्वी ग्रह है, जिसकी तुलना कोई नहीं कर सकता, और जिसकी गणना देवों में है, वह भो जब दूसरोंसे हार खा जाता है तब मनुष्योंकी तो बात ही क्या ? जिनके कि सिर पर काल सदा चक्कर लगाता रहता है । हाय, मैं बड़ा ही मुर्ख हैं जो आज तक विषयोंमें फंसा रहा और कभी अपने हितकी ओर मैंने ध्यान नहीं दिया। मोहरूपी गाढ़े अँधेरेने मेरी दोनों आँखोंको ऐसी अन्धी बना डाला, जिससे मुझे अपने कल्याणका रास्ता देखने या उस पर सावधानोके साथ चलनेको सूझ ही न पड़ा । इसी मोहके पापमय जालमें फंस कर मैंने जैनधर्मसे विमुख होकर अनेक पाप किये । हाय, मैं अब इस संसाररूपी अथाह समुद्रको पारकर सुखमय किनारेको कैसे प्राप्त कर सकंगा? प्रभो, मुझे शक्ति प्रदान कीजिये, जिससे मैं आत्मिक सच्चा सुख लाभ कर सकू। इस विचारके बाद उन्होंने स्थिर किया कि जो हुआ सो हुआ । अब भी मुझे
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