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आराधना कथाकोश यस्य धर्मे सुविश्वासः क्वापि भोतिं न याति स ।
-ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-जिसका धर्मपर दृढ़ विश्वास है, उसे कहीं भी भय नहीं होता । राजा सेठ पुत्रके अपराधके कारण उसपर अत्यन्त गुस्सा हो ही रहे थे कि एक चाण्डालकी निर्भयपनेको बातोंने उन्हें और भी अधिक क्रोधी बना दिया। एक चाण्डालको राजाज्ञाका उल्लंघन करनेवाला और इतना अभिमानी देखकर उनके क्रोधका कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने उसी समय कोतवालकी आज्ञा की कि जाओ, इन दोनोंको ले जाकर अपने मगरमच्छादि क्रूर जीवोंसे भरे हुए तालाबमें डाल आओ । वही हुआ। दोनोंको कोतवालने तालाबमें डलवा दिया । तालाबमें डालते ही पापी धर्मको तो जलजीवोंने खा लिया। रहा यमपाल, सो वह अपने जीवनकी कुछ परवा न कर अपने व्रतपालन में निश्चल बना रहा। उसके उच्च भावों और व्रतके प्रभावसे देवोंने आकर उसको रक्षा की। उन्होंने धर्मानुरागसे तालाब हीमें एक सिंहासनपर यमपाल चाण्डालको बैठाया, उसका अभिषेक किया और उसे खूब स्वर्गीय वस्त्राभूषण प्रदान किये, खूब उसका आदर सम्मान किया। जब राजा प्रजाको यह हाल सुन पड़ा, तो उन्होंने भी उस चाण्डालका बड़े आनन्द और हर्षके साथ सम्मान किया। उसे खूब धन दौलत दी। जिनधर्मका ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देखकर और-और भव्य पुरुषोंको उचित है कि वे स्वर्ग-मोक्षका सुख देनेवाले जिनधर्म में अपनी बुद्धिको लगावें। स्वर्गके देवोंने भी एक अत्यन्त नीच चाण्डालका आदर किया, यह देखकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंको अपनी-अपनी जातिका कभी अभिमान नहीं करना चाहिये । क्योंकि पूजा जातिकी नहीं होती, किन्तु गुणोंकी होती है।
यमपाल जातिका चाण्डाल था, पर उसके हृदयमें जिनधर्मको पवित्र वासना थी, इसलिए देवोंने उसका सम्मान किया, उसे रत्नादिकोंके अलंकार प्रदान किये; अच्छे-अच्छे वस्त्र दिये, उसपर फूलोंकी वर्षा की। यह जिनभगवान्के उपदिष्ट धर्मका प्रभाव है, वे ही जिनेन्द्रदेव, जिन्हें कि स्वर्गके देव भी पूजते हैं, मुझे मोक्षश्री प्रदान करें। यह मेरी उनसे प्रार्थना है।
इति आराधना कथाकोश प्रथम भाग
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