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वशिष्ठ तापसीकी कथा
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के साथ-साथ जल रहे हैं। तापसको विश्वास नहीं हुआ; बल्कि उसे गुस्सा भी आया कि इन्होंने क्यों मेरे गुरुको साँप हुआ बतलाकर उनकी बुराई की। पर आचार्यकी बात सच है या झूठ इसको परीक्षा कर देखनेके लिये यही उपाय था कि वह उस लकड़ेको चीरकर देखे । तापसीने वैसा ही किया । लकड़ेको चीरा। वीरभद्राचार्यका वहा सत्य हुआ । सर्प उसमें से निकला। देखते ही तापसको बड़ा अचम्भा हुआ । उसका सब अभिमान चूर-चूर हो गया । उसकी आचार्य पर बहुत ही श्रद्धा हो गई । उसने जैनधर्मका उपदेश सुना । सुनकर उसके हियेकी आँखें, जो इतने दिनोंसे बन्द थीं, एकदम खुल गईं । हृदयमें पवित्रताका सोता 'फूट निकला । बहुत दिनोंका कूट-कपट, मायाचार रूपी मैलापन देखते-देखने न जाने कहाँ बहकर चला गया। वह उसी समय वीरभद्राचार्यसे मुनि दीक्षा लेकर अबसे सच्चा तापसी बन गया ।
यहाँ घूमते-फिरते और धर्मोपदेश करते वशिष्ठ मुनि एकबार मथुराकी ओर फिर आये । तपस्या के लिए इन्होंने गोवर्द्धन पर्वत बहुत पसन्द किया। वहीं ये तपस्या किया करते थे । एकबार इन्होंने महीना भरके उपवास किये । तपके प्रभाव से इन्हें कई विद्याएँ सिद्ध हो गईं । विद्याओंने आकर इनसे कहा - प्रभो, हम आपकी दासियाँ हैं । आप हमें कोई काम बतलाइए । वशिष्ठने कहा- अच्छा, इस समय तो मुझे कोई काम नहीं, पर जब होगा तब मैं तुम्हें याद करूँगा । उस समय तुम उपस्थित होना । इसलिए इस समय तुम जाओ । जिन्होंने संसारकी सब माया, ममता छोड़ रक्खी है, सच पूछो तो उनके लिए ऐसी ऋद्धि-सिद्धिकी कोई जरूरत नहीं । पर वशिष्ठ मुनिने लोभमें पड़कर विद्याओंको अपनी आज्ञामें रहनेको कह दिया । पर यह उनके पदस्थ योग्य न था ।
महीना भरके उपवासे वशिष्ठ मुनि पारणाको शहर में आये । उग्रसेनको उनके उपवास करनेकी पहले हीसे मालूम थी । इसलिए तभी से उन्होंने भक्तिके वश हो सारे शहर में डौंडी पिटवा दी थी कि तपस्वी वशिष्ठ मुनिको मैं ही पारणा कराऊँगा, उन्हें आहार दूँगा, और कोई न दे । सच है, कभी-कभी मूर्खता से की हुई भक्ति भी दुःखकी कारण बन जाया करती है । वशिष्ठ मुनिके प्रति उग्रसेन राजाकी थी तो भक्ति, पर उसमें स्वार्थका भाग होनेसे उसका उलटा परिणाम हो गया । बात यह हुई कि जब वशिष्ठ मुनि पारणा के लिए आये, तब अचानक राजाका खास हाथी उन्मत्त हो गया । वह सांकल तुड़ाकर भाग खड़ा हुआ और
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