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सुकुमाल मुनिकी कथा
२५९ कर कुछ नहीं सकी। तब उसने निदान किया कि पापी, तूने जो इस समय मेरा मर्म भेदा है और मुझे लातोंसे ठुकराया है, और इसका बदला स्त्री होनेसे मैं इस समय न भी ले सकी तो कुछ चिन्ता नहीं, पर याद रख इस जन्ममें नहीं तो दूसरे जन्ममें सही, पर बदला लंगी अवश्य ।
और तेरे इसी पाँवको, जिससे कि तूने मुझे लात मारी है और मेरे हृदय भेदनेवाले तेरे इसी हृदयको मैं खाऊँगी तभी मुझे सन्तोष होगा। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसी मूर्खताको धिक्कार है जिसके वश हुए प्राणी अपने पुण्य-कर्मको ऐसे नीच निदानों द्वारा भस्म कर डालते हैं।
'इस हाथ दे उस हाथ ले' इस कहावतके अनुसार तीव्र पापका फल प्रायः तुरन्त मिल जाता है। वायुभूतिने मुनिनिन्दा द्वारा जो तीव्र पापकर्म बाँधा, उसका फल उसे बहुत जल्दी मिल गया। पूरे सात दिन भी न हुए होंगे कि वायुभूतिके सारे शरीरमें कोढ़ निकल आया। सच है, जिनकी सारा संसार पूजा करता है और जो धर्मके सच्चे मार्गको दिखानेवाले हैं ऐसे महात्माओंको निन्दा करने वाला पापी पुरुष किन महाकष्टोंको नहीं सहता। वायुभूति कोढ़के दुःखसे मरकर कौशाम्बीमें ही एक नटके यहाँ गधा हुआ । गधा मरकर वह जंगली सूअर हुआ। इस पर्यायसे मरकर इसने चम्पापुरमें एक चाण्डालके यहाँ कुत्ती का जन्म धारण किया, कुत्ती मरकर चम्पापुरीमें ही एक दूसरे चाण्डालके यहाँ लड़की हुई। यह जन्म होसे अन्धी थी। इसका सारा शरीर बदबू कर रहा था। इसलिये इसके माता-पिताने इसे छोड़ दिया । पर भाग्य सभीका बलवान होता है। इसलिए इसकी भी किसी तरह रक्षा हो गई। यह एक जांबूके झाड़ नोचे पड़ी-पड़ी जांबू खाया करती थी।
सूर्यमित्र मुनि अग्निभूतिको साथ लिये हुए भाग्यसे इस ओर आ निकले । उस जन्मकी दुःखिनी लड़कीको देखकर अग्निभूतिके हृदयमें कुछ मोह, कुछ दुःख हुआ। उन्होंने गुरुसे पूछा-प्रभो, इसकी दशा बड़ी कष्टमें है । यह कैसे जी रही है ? ज्ञानी सूर्यमित्र मुनिने कहा-तुम्हारे भाई वायुभूतिने धर्मसे पराङ्मुख होकर जो मेरो निन्दा की थी, उसी पापके फलसे उसे कई भव पशुपर्यायमें लेना पड़े । अन्तमें वह कुत्तीकी पर्यायसे मरकर यह चाण्डाल कन्या हुई है । पर अब इसकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है । इसलिये जाकर तुम इसे व्रत लिवाकर संन्यास दे आओ । अग्निभूतिने वैसा ही किया । उस चाण्डाल कन्याको पाँच अणुव्रत देकर उन्होंने संन्यास लिवा दिया।
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