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आराधना कथाकोश कर आनेके लिए बुलाने आया। उसने कहा-प्रभो, चलिए। बहुत समय हो गया । सब भोजन ठंडा हुआ जाता है। सुकोशलने तब भोजनके लिए इंकार कर दिया। माता और स्त्रियोंने भी बहुत आग्रह किया, पर वह भोजन करनेको नहीं गया। उसने साफ-साफ कह दिया कि जब तक में उस महापुरुषका सच्चा-सच्चा हाल न सून लूगा तब तक भोजन नहीं करूंगा। जयावतीको सुकोशलके इस आग्रहसे कुछ गुस्सा आ गया, सो वह तो वहाँसे चल दी । पोछे सुनन्दाने सिद्धार्थ मुनिकी सब बातें सुकोशल
से कह दी । सुनकर सुकोशलको कुछ दुःख भी हुआ, पर साथ हो वैराग्यने । उसे सावधान कर दिया। वह उसो समय सिद्धार्थ मुनिराजके पास गया
और उन्हें नमस्कार कर धर्मका स्वरूप सुननेकी उसने इच्छा प्रकट की। सिद्धार्थने उसे मुनिधर्म और गार्हस्थ्य-धर्मका खुलासा स्वरूप समझा दिया । सुकोशलको मुनिधर्म बहुत पसन्द पड़ा। वह मुनिधर्मको भावना भाता हुआ घर आया और सुभद्राकी गर्भस्य सन्तानको अपने सेठ पदका तिलक कर तथा सब माया-ममता, धन-दौलत और स्वजन-परिजनको छोड़-छाड़कर श्री सिद्धार्थ मुनिके पास हो दीक्षा लेकर योगी बन गया। सच है, जिसे पुण्योदयसे धर्म पर प्रेम है और जो अपना हित करनेके लिए सदा तैयार रहता है, उस महापुरुषको कौन झूठी-सच्ची सुझाकर अपने कैदमें रख सकता है, उसे धोखा दे ठग सकता है ?
एक मात्र पुत्र और वह भी योगी बन गया। इस दुःखकी जयावतीके हृदय पर बड़ी गहरी चोट लगी। वह पुत्र दुःखसे पगली-सी बन गई। खाना-पीना उसके लिए जहर हो गया। उसकी सारी जिन्दगी ही धलधानी हो गई। वह दुःख और चिन्ताके मारे दिनोंदिन सूखने लगी। जब देखो तब ही उसकी आँखें आँसुओंसे भरी रहती। मरते दम तक वह पुत्रशोकको न भूल सकी । इसी चिन्ता, दुःख, आर्तध्यानसे. उसके प्राण निकले । इस प्रकार बुरे भावोंसे मरकर मगध देशके मोदिंगलनामके पर्वत पर उसने व्याघ्रीका जन्म लिया। इसके तीन बच्चे हुए । यह अपने बच्चोंके साथ पर्वत पर ही रहती थी। सच है, जो जिनेन्द्र भगवान्के पवित्र धर्मको छोड़ बैठते हैं, उनकी ऐसी ही दुर्गति होती है।
विहार करते हुए सिद्धार्थ और सुकोशल मुनिने भाग्यसे इसी पर्वत पर आकर योग धारण कर लिया। योग पूरा हुए बाद जब ये भिक्षाके लिए शहर में जानेके लिए पर्वत परसे नीचे उतर रहे थे उसी समय वह व्याघ्री, जो कि पूर्वजन्ममें सिद्धार्थकी स्त्री और सुकोशलकी माता थी, इन्हें खाने
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