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आराधना कथाकोश
रसोइयेको ही मारकर खा गया। यहाँसे घूमता-फिरता यह मेखलपुर पहुँचा और वहाँ वासुदेवके हाथ मारा जाकर नरक गया । ___ अधर्मी पुरुष अपने ही पापकर्मोसे संसार-समुद्र में रुलते हैं। इसलिए सुखकी चाह करनेवाले बुद्धिमानोंको चाहिए कि वे सुखके स्थान जैनधर्मका पालन करें।
५१. नागदत्ताकी कथा देवों, विद्याधरों, चक्रवत्तियों और राजों, महाराजों द्वारा पूजा किये गये जिनभगवान्के चरणोंको नमस्कार कर नागदत्ताकी कथा लिखी जाती है। __ आभीर देशके नासक्य नगरमें सागरदत्त नामका एक सेठ रहता था। उसकी स्त्रीका नाम नागदत्ता था। इसके एक लड़का और एक लड़की थी। दोनोंके नाम थे श्रीकुमार और श्रीषेणा । नागदत्ताका चाल-चलन अच्छा न था । अपनी गौएँको चरानेवाले नन्द नामके गुवालके साथ उसकी आशनाई थी। नागदत्ताने उसे एक दिन कुछ सिखा-सुझा दिया । सो वह बीमारीका बहाना बनाकर गौएँ चरानेको नहीं आया। तब बेचारे सागरदत्तको स्वयं गौएँ चरानेको जाना पड़ा। जंगलमें गौओंको चरते छोड़कर वह एक झाड़के नीचे सो गया। पीछेसे नन्दगुवालने आकर उसे मार डाला। बात यह थी कि नागदत्ताने ही अपने पतिको मार डालनेके लिए उसे उकसाया था। और फिर परस्त्री-लम्पटी पुरुष अपने सुख में आनेवाले विघ्नको नष्ट करनेके लिए कौन बुरा काम नहीं करता ।
नागदत्ता और पापी नन्द इस प्रकार अनर्थ द्वारा अपने सिर पर एक बड़ा भारी पापका बोझ लादकर अपनी नीच मनोवृत्तियोंको प्रसन्न करने लगे। श्रीकुमार अपनी माताकी इस नीचतासे बेहद कष्ट पाने लगा। उसे लोगोंको मह दिखाना तक कठिन हो गया। उसे बड़ी लज्जा आने लगी और इसके लिए उसने अपनी माताको बहुत कुछ कहा सुना भी। पर नागदत्ताके मन पर उसका कुछ असर नहीं हुआ। वह पिचली हुई नागिन
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