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आराधना कथाकोश
रूपो समुद्र अथाह है, नाना तरहके दुःखरूपी भयंकर जलजीवोंसे भरा हुआ है और मोह जाल में फँसे हुए जीवोंके लिए अत्यन्त दुस्तर है । तब जो पुण्यसे यह मनुष्य देह मिला है, इसे इस अथाह समुद्र में बहने देना या जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बतलाये इस अथाह समुद्रके पार होनेके साधन तपरूपी जहाज द्वारा उसके पार पहुँचा देना । मैं तो इसके लिये यहो उचित समझता हूँ कि, जब संसार असार है और उसमें सुख नहीं है, तब संसारसे पार होने का उपाय करना ही कर्तव्य और दुर्लभ मनुष्य देहके प्राप्त करनेका फल है । मैं तो तुम्हें भी यही सलाह दूंगा कि तुम इस नाशवान् माया-ममताको छोड़-छोड़कर कभी नाश न होनेवाली लक्ष्मीकी प्राप्ति के लिये यत्न करो। मणिकेतुने इसके सिवा और भी बहुत कहने सुनने या समझाने में कोई कसर न को । पर सगर सब कुछ जानता हुआ भो पुत्र प्रेमके वश हो संसारको न छोड़ सका । मणिकेतुको इससे बड़ा दुःख हुआ कि सगरकी दृष्टिमें अभी संसारकी तुच्छता नजर न आई और वह उलटा उसीमें फँसता जाता है। लाचार हो वह स्वर्ग चला गया ।
एक दिन सगर राज सभा में सिंहासन पर बैठे हुए थे । इतने में उनके पुत्रोंने आकर उनसे सविनय प्रार्थना की— पूज्यपाद पिताजी, उन वीर क्षत्रिय पुत्रोंका जन्म किसो कामका नहीं, व्यर्थ है, जो कुछ काम न कर पड़े पड़े खाते-पीते और ऐशोआराम उड़ाया करते हैं । इसलिये आप कृपाकर हमें कोई काम बतलाइये । फिर वह कितना ही कठिन या एक बार वह असाध्य ही क्यों न हो, उसे हम करेंगे । सगरने उन्हें जवाब दियापुत्रों, तुमने कहा वह ठीक है और तुमसे वीरों को यही उचित भी है । पर अभी मुझे कोई कठिन या सीधा ऐसा काम नहीं देख पड़ता जिसके लिए मैं तुम्हें कष्ट दूं । ओर न छहों खण्ड पृथ्वी में मेरे लिये कुछ असाध्य ही है । इसलिये मेरी तो तुमसे यही आज्ञा है कि पुण्यसे जो यह धन-सम्पत्ति प्राप्त है, इसे तुम भोगो। इस दिन तो ये सब लड़के पिताकी बातका कुछ जवाब न देकर चुपचाप इसलिये चले गये कि पिताको आज्ञा तोड़ना ठीक नहीं । परन्तु इनका मन इससे रहा अप्रसन्न हो ।
कुछ दिन बीतने पर एक दिन ये सब फिर सगर के पास गये और उन्हें नमस्कार कर बोले- पिताजो, आपने जो आज्ञा की थी, उसे हमने इतने दिनों उठाई, पर अब हम अत्यन्त लाचार हैं। हमारा मन यहाँ बिलकुल नहीं लगता । इसलिये आप अवश्य कुछ काममें हमें लगाइये । नहीं तो
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