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धनसे डरे हुए सागरदत्तकी कथा
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विचार पर बड़ी घृणा हुई और उसने फिर उन रत्नोंको अपने भाइयोंके हाथ दे दिया । वे उन्हें पहिचान गये । उन्हें रत्नोंके प्राप्त होनेका हाल जानकर बड़ा ही वैराग्य हुआ । उसी समय वे संसारकी सब माया-ममता छोड़कर, जो कि महा दुःखका कारण है, दमधर मुनिके पास दीक्षा ले गये । इन्हें साधु हुए देखकर इनकी माता और बहिन भी आर्यिका हो गईं। आगे चलकर ये दोनों भाई बड़े तपस्वी महात्मा हुए। अपना और दूसरों का संसारके दुःखोंसे उद्धार करना ही एक मात्र इनका कर्त्तव्य हो गया। स्वर्ग के देवता और प्रायः सब ही बड़े-बड़े राजा-महाराजा इनकी सेवा पूजा करनेको आने लगे ।
यह लोभ संसार के दुःखोंका मूल कारण और अनेक कष्टोंका देनेवाला है, माता, पिता, भाई, बहिन, बन्धु, बान्धव आदिके परस्परमें ठगने और बुरे विचारों के उत्पन्न करनेका घर है । समझदारोंको, जो कि अपना हित करने की इच्छा करते हैं, चाहिए कि वे इस पापके बाप लोभको मनसा, वाचा, कर्मणा छोड़कर संसारका हित करनेवाले और स्वर्ग तथा मोक्षका सुख देनेवाले जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किये परम पवित्र धर्म में अपने मनको दृढ़ करने का यत्न करें ।
४०. धनसे डरे हुए सागरदत्तकी कथा
केवलज्ञानरूपी उज्ज्वल नेत्र द्वारा तीनोंको देखने और जाननेवाले ऐसे 'जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर धनके लोभसे डरकर मुनि हो जानेवाले सागरदत्तकी कथा लिखी जाती है ।
किसी समय धनमित्र, धनदत्त आदि बहुतसे सेठोंके पुत्र व्यापार के लिए कौशाम्बीसे चलकर राजगृहकी ओर रवाना हुए। रास्ते में एक गहन वनी में चोरोंने इन्हें लूट लिया । इनका सब माल असबाब छीन-छानकर वे चलते हुए । सच है, जिनके पल्ले में कुछ पुण्य नहीं होता वे कोई भी काम करें, उन्हें नुकसान ही उठाना पड़ता है ।
उधर धन पाकर चोरोंकी नियत बिगड़ी। सब परस्पर में यह चाहने लगे कि धन मेरे ही हाथ पड़े और किसीको कुछ न मिले। और इसी
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