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आराधना कथाकोश
सेकी लड़कीके साथ इसको ब्याह देना । पुत्रके जीने की आशाको छोड़ बैठकी अपेक्षा उसने किसी तरह नीली के साथ उसका ब्याह कर देना ही अच्छा समझा । सच है, सन्तानका मोह मनुष्यसे सब कुछ करा सकता है । इस सम्बन्ध के लिए समुद्रदत्त के ध्यानमें एक युक्ति आई। वह यह कि इस दशामें उसने अपना और पुत्रका जैनी बन जाना बहुत ही अच्छा समझा और वे बन भी गये । अबसे वे मन्दिर जाने लगे, भगवान्की पूजा करने लगे, स्वाध्याय, व्रत, उपवास भी करने लगे । मतलब यह कि थोड़े ही दिनों में पिता-पुत्र ने अपने जैनी हो जानेका लोगोंको विश्वास करा दिया और धीरे-धीरे जिनदत्त से भी इन्होंने अधिक परिचय बढ़ा लिया । बेचारा जिनदत्त सरल स्वभावका था और इसीलिए वह सब हीको अपना-सा ही सरल स्वभावी समझता था । यही कारण हुआ कि समुद्रदत्तका चक्र उस पर चल गया । उसने सागरदत्तको अच्छा पढ़ा लिखा, खूबसूरत और अपनी पुत्रीके योग्य वर समझकर नीलीको उसके साथ ब्याह दिया । सागरदत्तका मनोरथ सिद्ध हुआ । उसे नया जीवन मिला। इसके बाद थोड़े दिनों तक तो पिता-पुत्रने और अपनेको ढोंगी वेषमें रक्खा, पर फिर कोई प्रसंग लाकर वे पीछे बुद्धधर्म के माननेवाले हो गये । सच है, मायाचारियों- पापियोंकी बुद्धि अच्छे धर्मपर स्थिर नहीं रहती । यह बात प्रसिद्ध है कि कुत्ते के पेट में घी नहीं ठहरता ।
जब इन पिता-पुत्र ने जैनधर्म छोड़ा तब इन दुष्टोंने यहाँ तक अन्याय किया कि बेचारी नीलीका उसके पिताके घरपर जाना-आना भी बन्द कर दिया । सच है, पापी लोग क्या नहीं करते ! जब जिनदत्त को इनके मायाचारका यह हाल जान पड़ा तब उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ, बेहद दुःख हुआ । वह सोचने लगा- क्यों मैंने अपनी प्यारी पुत्रोको अपने हाथोंसे कुए में ढकेल दिया ? क्यों मैंने उसे कालके हाथ सौंप दिया ? सच है, दुर्जनों की संगति से दुःखके सिवा कुछ हाथ नहीं पड़ता । नोचे जलती हुई अग्नि भी ऊपर की छतको काली कर देती है ।
जिनदत्तने जैसा कुछ किया उसका पश्चात्ताप उसे हुआ । पर इससे क्या नीली दुखी हो ? उसका यह धर्म था क्या ? नहीं ! उसे अपने भाग्य के अनुसार जो पति मिला, उसे ही वह अपना देवता समझती थी और उसकी सेवा में कभी रत्तीभर भी कमी नहीं होने देती थी । उसका प्रेम पवित्र और आदर्श था । यही कारण था कि वह अपने प्राणनाथको अत्यन्त प्रेमपात्र थी । विशेष इतना था कि नीलीने बुद्धधर्मके माननेवालोंके यहाँ
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