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आराधना कथाकोश २८. नीलीकी कथा
जिनभगवान् के चरणोंको, जो कि कल्याणके करनेवाले हैं, नमस्कार कर श्रीमती नीली सुन्दरीकी में कथा कहता हूँ । नीलीने चौथे अणुव्रतब्रह्मचर्यकी रक्षा कर प्रसिद्धि प्राप्त की है ।
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पवित्र भारतवर्ष में लाटदेश एक सुन्दर और प्रसिद्ध देश था | जिनधर्मका वहाँ खूब प्रचार था । वहाँकी प्रजा अपने धर्मकर्म पर बड़ी दृढ़ थी । इससे इस देशकी शोभाको उस समय कोई देश नहीं पा सकता था । जिस 'समयकी यह कथा है, तब उसकी प्रधान राजधानी भृगुकच्छ नगर था !
यह नगर बहुत सुन्दर और सब प्रकारकी योग्य और कीमती वस्तुओं से पूर्ण था । इसका राजा तब वसुपाल था और वह जिससे अपनी प्रजा सुखी हो, धनी हो, सदाचारी हो, दयालु हो, इसके लिए कोई बात उठा न रखकर सदा प्रयत्नशील रहता था ।
यहीं एक सेठ रहता था । उसका नाम था जिनदत्त । जिनदत्तकी शहरके सेठ साहूकारों में बड़ी इज्जत थी । वह धर्मशील और जिनभगवान्का भक्त था । दान, पूजा, स्वाध्याय आदि पुण्यकर्मोंको वह सदा नियमानुसार किया करता था । उसकी धर्मप्रियाका नाम जिनदत्ता था । जैसा जिनदत्त धर्मात्मा और सदाचारी था, उसकी गुणवती साध्वी स्त्री भी उसीके अनुरूप थी और इसीसे इनके दिन बड़े ही सुखके साथ बीतते थे । अपने गार्हस्थ्य सुखको स्वर्ग सुखसे भी कहीं बढ़कर इन्होंने बना लिया था । जिनदत्ता बड़ी उदार प्रकृतिकी स्त्री थी । वह जिसे दुखी देखती उसकी सब तरह सहायता करती, और उनके साथ प्रेम करती । इसके सन्तानमें केवल एक पुत्री थी । उसका नाम नीली था । अपने मातापिता के अनुरूप ही इसमें गुण और सदाचारकी सृष्टि हुई थी । जैसे सन्तोंका स्वभाव पवित्र होता है, नीली भी उसी प्रकार बड़े पवित्र स्वभाव की थी ।
इस नगर में एक और वैश्य रहता था । उसका नाम समुद्रदत्त था । यह जैनी नहीं था । इसकी बुद्धि बुरे उपदेशों को सुन-सुनकर बड़ी मठ्ठी हो गई थी। अपने हितकी ओर कभी इसकी दृष्टि नहीं जाती थी । इसकी स्त्री का नाम सागरदत्ता था । इसके एक पुत्र था उसका नाम था सागरदत्त | सागरदत्त एक दिन अचानक जिनमन्दिर में पहुँच गया । इस समय नीली भगवान् की पूजा कर रही थी । वह एक तो स्वभावसे ही बड़ी
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