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चारुदत्त सेठको कथा
१८१ जहाँ बकरे बँधे थे वहाँ गया। उसने पहले अपने बकरेको मार डाला और चारुदत्तके बकरेका भी उसने आधा गला काट दिया होगा कि अचानक चारुदत्तकी नींद खुल गई । रुद्रदत्तको अपने पास सोया न पाकर उसका सिर ठनका । वह उठकर दौड़ा और बकरोंके पास पहुँचा। जाकर देखता है तो पापो रुद्रदत्त बकरेका गला काट रहा है। चारुदत्तको काटो तो खून नहीं। वह क्रोधके मारे भर गया। उसने रुद्रदत्तके हाथसे छुरी तो छुड़ाकर फेंकी और उसे खूब ही सुनाई। सच है, कौन ऐसा पाप है, जिसे निर्दयी पुरुष नहीं करते?
उस अधमरे बकरेको टगर-टगर देखते देखकर दयासे चारुदत्तका हृदय भर आया । उसको आँखोंसे आँसुओंकी बूंदें टपकने लगीं। पर वह उसके बचानेका प्रयत्न करने के लिए लाचार था। इसलिए कि वह प्रायः काटा जा चुका था। उसको शान्तिके साथ मृत्यु होकर वह सुगति लाभ करे, इसके लिए चारुदत्तने इतना अवश्य किया कि उसे पंच नमस्कारमंत्र सुनाकर संन्यास दे दिया। जो धर्मात्मा जिनेन्द्र भगवान्के उपदेशका रहस्य समझनेवाले हैं, उनका जीवन सच पूछो तो केवल परोपकारके लिए ही होता है। __चारुदत्तने बहुतेरा चाहा कि मैं पोछा लौट जाऊँ, पर वापिस लौटनेका उसके पास कोई उपाय न था। इसलिए अत्यन्त लाचारीकी दशामें उसे भी रुद्रदत्तकी तरह उस थैलीकी शरण लेनी पड़ी। उड़ते हुए भेरुण्डपक्षी पर्वत पर दो मांस-पिण्ड पड़े देखकर आये और उन दोनोंको चोंचोंसे उठा चलते बने। रास्ते में उनमें परस्पर लड़ाई होने लगी। परिणाम यह निकला कि जिस थैलीमें रुद्रदत्त था, वह पक्षोकी चोंचसे छूट पड़ी। रुद्रदत्त समुद्र में गिरकर मर गया। मरकर वह पापके फलसे कुगतिमें गया। ठीक भी है, पापियोंकी कभी अच्छी गति नहीं होती। चारुदत्तकी थैलीको जो . 'पक्षी लिए था, उसने उसे रत्तद्वीपके एक सुन्दर पर्वतपर ले जाकर रख दिया। इसके बाद पक्षीने उसे चोंचसे चोरना शुरू किया। उसका कुछ भाग चीरते ही उसे चारुदत्त देख पड़ा। पक्षी उसी समय डरकर उड़ भागा। सच है, पुण्यवानोंका कभी-कभी तो दुष्ट भी हित करनेवाले हो जाते हैं। जैसे ही चारुदन थेलीके बाहर निकला कि धूपमें ध्यान लगाये एक महात्मा उसे देख पड़े। उन्हें ऐसी कड़ी धूपमें मेरुकी तरह निश्चल खड़े देखकर चारुदत्तकी उनपर बहुत श्रद्धा हो गई। चारुदत्त उनके पास गया और बड़ी भक्तिसे उसने उनके चरणों में अपना सिर नवाया। मुनिराजका ध्यान पूरा होते ही उन्होंने चारुदत्तसे कहा-चारुदत्त, क्यों
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