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सुरत राजाको कथा
१७३ कहकर राजा चले आये। उन्होंने मुनिराजोंको भक्तिपूर्वक ऊँचे आसनपर बैठाकर नवधा भक्ति-सहित पवित्र आहार कराया, जो कि उत्तम सुखोंका देनेवाला है। सच है, दान, पूजा, व्रत, उपवासादिसे ही श्रावकोंकी शोभा है और जो इनसे रहित हैं वे फलरहित वृक्षकी तरह निरर्थक समझे जाते हैं । इसलिए बुद्धिमानोंको उचित है कि वे पात्रदान, जिनपूजा, व्रत, उपवासादिक सदा अपनी शक्तिके अनुसार करते रहें।
इधर तो राजाने मुनियोंको दान देकर पुण्य उत्पन्न किया और उधर उनकी प्राणप्रिया अपने विषय सुखके अन्तराय करनेवाले मुनियोंका आना सुनकर बड़ी दुखो हुई। उसने अपना भला-बुरा कुछ न सोचकर मुनियोंकी निन्दा करना शुरू किया और खूब ही मनमानी उन्हें गालियां दीं। सन्तोंका यह कहना व्यर्थ नहीं है कि-"इस हाथ दे, उस हाथ ले"। सतोके लिए यह नीति चरितार्थ हुई। अपने बाँधे तीव्र पापकर्मोका फल उसे उसी समय मिल गया। रानीके कोढ़ निकल आया। सारा शरीर काला पड़ गया । उससे दुर्गन्ध निकलने लगी । आचार्य कहते हैं-हलाहल विष खा लेना अच्छा है, जो एक ही जन्ममें कष्ट देता है, पर जन्म-जन्ममें दुःख देनेवाली मुनि-निन्दा करना कभी अच्छा नहीं । क्योंकि सन्त-महात्मा तो व्रत, उपवास, शील आदिसे भूषित होते हैं और सच्चे आत्महितका मार्ग बतानेवाले हैं, वे निन्दा करने योग्य कैसे हों? और ये ही गुरु अज्ञानान्धकारको नष्ट करते हैं इसलिए दीपक हैं, सबका हित करते हैं, इसलिए बन्धु हैं, और संसाररूपी समुद्रसे पार करते हैं, इसलिए कर्मशील खेवटिया हैं। अतः हर प्रयत्न द्वारा इनकी आराधना, सेवा-शुश्रुषा करते रहना चाहिये।
जब राजा मुनिराजोंको आहार देकर निवृत्त हुए तब पीछे वे अपनी प्रियाके पास आ गये । आते ही जैसे उन्होंने रानीका काला और दुर्गन्धमय, शरीर देखा वे बड़े अंचभेमें पड़ गये । पूछने पर उन्हें उसका कारण मालूम हुआ । सुनकर वे बहुत खिन्न हुए। संसार, शरीर, भोग उन्हें अब अप्रिय जान पड़ने लगे। उन्हें अपनी रानीका मुनि-निन्दारूम घृणित कर्म देखकर बड़ा वैराग्य हुआ। वे उसी समय सब राज-पाट छोड़कर योगी बन गये और अपना तथा संसारका हित करनेमें उद्यमी बने ।
समय पाकर सतोकी मृत्यु हुई। अपने पापके फलसे वह संसाररूपी वनमें घूमने लगी। सो ठोक ही है, अपने किये पुण्य या पापका फल जीवोंको भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार संसारकी विचित्र स्थिति
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