________________
मृगसेन धीवरकी कथा
१३१
तथा उसकी सम्मति से अपनी गर्भिणी स्त्रीको उसीके घरपर छोड़कर आप रात के समय अपना कुछ धन और पुत्रीको साथ लिए वहाँ गुपचुपसे निकल खड़ा हुआ । वह धीरे-धीरे कौशाम्बी आ पहुँचा। सच है, दुर्जनोंके सम्बन्धसे देश भी छोड़ देना पड़ता है ।
श्रीदत्त के घर के पास ही एक श्रावक रहता था। एक दिन उसके यहाँ पवित्र चारित्रके धारक शिवगुप्त और मुनिगुप्त नामके दो मुनिराज आहारके लिये आये । उन्हें श्रावक महाशयने अपने कल्याणकी इच्छासे विधिपूर्वक आहार दिया, जो कि सर्वोत्तम सम्पत्तिकी प्राप्तिका कारण है । मुनिराजको आहार देकर उसने बहुत पुण्य उत्पन्न किया, जो कि दुःख दरिद्रता आदिका नाश करनेवाला है । मुनिराज आहारके बाद जब वनमें जाने लगे तब उनमें से मुनिगुप्तकी नजर धनश्रीपर पड़ी, जो कि श्रीदत्तके आँगन में खड़ी हुई थी। उस समय उसकी दशा अच्छी नहीं थी । बेचारी पति और पुत्र वियोगसे दुःखी थी, पराये घरपर रह कर अनेक दुःखोंको सहती थी, आभूषण वगैरह सब उसने उतार डालकर शरीरको शोभाहीन बना डाला था, कुकवि की रचनाके समान उसका सारा शरीर रूक्ष और श्रीहीन हो रहा था और इन सब दुःखोंके होनेपर भी वह गर्भिणी थी, इससे और अधिक दुर्व्यवस्था में वह फँसी थी । उसे इस हालतमें देखकर मुनिगुप्त ने शिवगुप्त मुनिराज से कहा - प्रभो, देखिये तो इस बेचारीकी कैसी दुर्दशा हो रही है, कैसे भयंकर कष्टका इसे सामना करना पड़ा है ? जान पड़ता है इसके गर्भ में किसी अभागे जीवने जन्म लिया है, इसीसे इसकी यह दीन-हीन दशा हो रही है। सुनकर जैनसिद्धान्त के विद्वान् और अवधिज्ञानी श्रीशिवगुप्त मुनि बोले- मुनिगुप्त, तुम यह न समझो कि इसके गर्भ में कोई अभागा आया है; किन्तु इतना अवश्य है कि इस समय उसकी अवस्था ठीक नहीं है और यह दुःखी है; परन्तु थोड़े ही दिनों के बाद इसके दिन फिरेंगे और पुण्यका उदय आवेगा । इसके यहाँ जिसका जन्म होगा, वह बड़ा महात्मा, जिनधर्मका पूर्ण भक्त और राजसम्मानका पात्र होगा । होगा तो वह वैश्यवंश में पर उसका ब्याह इन्हीं विश्वंभर राजाकी पुत्री के साथ होगा, राजवंश भी उसकी सेवा करेगा ।
मुनिराजकी भविष्य वाणी पापी श्रीदत्तने भी सुनी। वह था तो धनश्री के पति गुणपालका मित्र, पर अपने एक जातीय बन्धुका उत्कर्ष होना उसे सह्य नहीं हुआ । उसका पापी हृदय मत्सरता के द्वेषसे अधीर हो उठा । उसने बालकको जन्मते ही मार डालनेका निश्चय किया । अबसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org