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मृगसेन धीवरकी कथा
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ऐसे अन्धकार में अकेले कहाँ जा रहे हो ? उत्तर में धनकीर्तिने कहाआपके पिताजीको आज्ञासे में पार्वतोजीके मन्दिरमें बलि देनेके लिए जा रहा हूँ । यह सुनकर महाबल बोला- आप बलि मुझे दे दीजिए, मैं चला जाता हूँ । आपके वहाँ जानेकी कोई आवश्यकता नहीं है। आप घर पधारिए । धनकीर्ति ने कहा- देखिए, इससे आपके पिताजी बुरा मानेंगे । इसलिए आप मुझे हो जाने दीजिए। महाबलने कहा- नहीं, मुझे बलि देनेकी सब विधि वगैरह मालूम है, इसलिए में ही जाता हूँ - यह कहकर उसने धनकीत्तिको तो घर लौटा दिया और आप दुर्गाके मन्दिर जाकर काल घरका पाहुना बना । सच है -
पुण्यवानों के लिए कालरूपी अग्नि जल हो जाती हूँ, समुद्र स्थल हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है, विष अमृतके रूपमें परिणत हो जाता है, विपत्ति सम्पत्ति हो जाती है और विघ्न डरके मारे नष्ट हो जाते हैं । इसलिए बुद्धिमानोंको सदा पुण्यकर्म करते रहना चाहिए | पुण्य उत्पन्न - करने के कारण ये हैं-- भक्ति से भगवान् की पूजा करना, पात्रोंको दान देना, व्रत पालना, उपवासादिके द्वारा इंद्रियों को जीतना, ब्रह्मचर्य रखना, दुखियोंकी सहायता करना, विद्या पढ़ाना, पाठशाला खोलना, अर्थात् अपने से जहाँतक बन पड़े तनसे, मनसे और धनसे दूसरोंकी भलाई करना ।
अपने पुत्रके मारे जानेकी जब श्रीदत्तको खबर हुई, तब वह बहुत दुखी हुआ । पर फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ । उसका हृदय अब प्रतिहिंसासे और अधिक जल उठा । उसने अपनी खोको एकान्त में बुलाकर कहा – प्रिये, बतलाओ तो हमारे कुलरूपीवृक्षको जड़मूलसे उखाड़ फेंकनेवाले इस दुष्टकी हत्या कैसे हो ? कैसे यह मारा जा सके ? मैंने इसके मारनेको जितने उपाय किये, भाग्यसे वे सब व्यर्थ गये और उलटा उनसे मुझे हो अत्यन्त हानि उठानी पड़ी। सो मेरी बुद्धि तो बड़े असमंजस में फँस गई है । देखो कैसे अचंभेको बात है जो इसके मारनेके लिए जितने उपाय किये, उन सबसे रक्षा पाकर और अपना ही बैरी बना हुआ यह
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अपने घरमें बैठा है ।
श्रीदत्तकी स्त्रीने कहा -- बात यह है कि अब आप बूढ़े हो गये । आपकी बुद्धि अब काम नहीं देती । अब जरा आप चुप होकर बैठे रहें । मैं आपकी इच्छा बहुत जल्दी पूरी करूंगी। यह कहकर उस पापिनीने दूसरे दिन विष मिले हुए कुछ लड्डू बनाये और अपनी पुत्रोसे कहा -- बेटो श्रीमती, देख मैं तो अब स्नान करनेको जाती हूँ और तूं इतना ध्यान
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