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आराधना कथाकोश
उसे घर के बाहर ही रह जाना पड़ा। बाहर एक पुराना बड़ा भारी लकड़ा पड़ा हुआ था । मृगसेन निरुपाय होकर पंचनमस्कार मंत्र का ध्यान करता हुआ उसी पर सो गया । दिनभर के श्रम के कारण रात में वह तो भर नींद में सोया हुआ था कि उस लकड़े में से एक भयङ्कर और जहरीले सर्पने निकल कर उसे काट खाया । वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुआ ।
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प्रातः काल होने पर जब उसकी पत्नी ने मृगसेन की यह दुर्दशा देखो तो उसके दुःख का कोई ठिकाना नहीं रहा । वह रोने लगी, छाती कूटने लगी और अपने नीच कर्मका बार-बार पश्चात्ताप करने लगी । उसका दुःख बढ़ता ही गया । उसने भो यह प्रतिज्ञा लो कि जो व्रत मेरे स्वामी ने ग्रहण किया था वही मैं भी ग्रहण करती हूँ और निदान किया कि "ये ही मेरे अन्य जन्म में भी स्वामी हों।" अनन्तर साहस करके वह भी अपने स्वामी के साथ अग्नि प्रवेश कर गई । इस प्रकार अपघातसे उसने अपनी जान गँवा दी।
विशाला नामकी नगरी में विश्वम्भर राजा राज्य करते थे । उनकी प्रियाका नाम विश्वगुणा था। वहीं एक सेठ रहते थे । गुणपाल उनका नाम था । उनकी स्त्रीका नाम धनश्री था । धनश्री के सुबन्धु नामकी एक अतिशय सुन्दरी और गुणवती कन्या थी । पुण्योदय से मृगसेन धीवर का जीव धनश्री के गर्भ में आया ।
अपने नर्मधर्म नामक मंत्री के अत्यन्त आग्रह और प्रार्थना से राजा ने सेठ गुणपाल से आग्रह किया कि वह मंत्रीपुत्र नर्मधर्म के साथ अपनी पुत्री सुबन्धु का ब्याह कर दे । यह जानकर गुणपाल को बहुत दुःख हुआ । उसके सामने एक अत्यन्त कठिन समस्या उत्पन्न हुई। उसने विचारा कि पापी राजा, मेरी प्यारी सुन्दरो सुबन्धुका, जो कि मेरे कुलरूपी बगीचेपर प्रकाश डालनेवाली है, नीच कर्म करनेवाले नर्मधर्मके साथ ब्याह कर देने को कहता है । उसने इस समय मुझे बड़ा संकट में डाल दिया । यदि सुबन्धुका नर्मधर्म के साथ ब्याह कर देता हूँ, तो मेरे कुलका क्षय होता है और साथ ही अपयश होता है और यदि नहीं करता हूँ, तो सर्वनाश होता है । राजा न जाने क्या करेगा ? प्राण भी बचे या नहीं बचे ? आखिर उसने निश्चय किया जो कुछ हो, पर मैं ऐसे नीचोंके हाथ तो कभी अपनी प्यारी पुत्रीका जीवन नहीं सौंदूंगा - उसकी जिन्दगी बरबाद नहीं करूँगा । इसके बाद वह अपने श्रीदत्त मित्रके पास गया और उससे सब हाल कह कर
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